था कहा “धूसरित ग्रीष्म गगन या सरस बरसता पावस हो।
चांदनी चैत की हो डहकी या हेमंतिनी अमावस हो ।
प्रति दिवस जलज जयमाल लिए मैं सुमुखि करूंगा अभिनन्दन।
दृग ओट न होना निःसृत होगा हा राधा-राधा क्रंदन ।
कल-कंज विलोचन मदिर अधर की प्राण लुटाना मधुशाला।
मेरे जीवन की श्वांस-श्वांस हो तुम्ही सहचरी ब्रजबाला।”
गोविन्द हुई विस्मृत कैसे बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली।।१०॥

तुम मसृण पाणि मम पड़ सहला सो गए प्राण ले मधु सपना।
जब कहा “विदा बेला प्रियतम कर लूँ सम श्लथ दुकूल अपना ।”
कुछ कर्ण-कुहर में कह विहँसे तुम विधु-किरणोपम तिलक दिए।
प्रिया परिरम्भण में उठे खनक छूम-छननन नूपुर दुभाषिये।
पूछ “सखियाँ पूछेंगी ही स्वामिनि कैसे बीती रजनी ?”
बोले “दर्पण में निज कपोल चूमना ललक शतधा सजनी ।”
है वही कृष्ण-वारुणी पिए बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली।।११