सुधि करो प्राण पूछा तुमने “क्यों मौन खड़ी ब्रजबाला हो?

स्मित मधुर हास्य की मृदुल रश्मि से करती व्योम उजाला हो ।

तुम वारी-वीचि की सरसिज कलिका सी लेती अँगडाई हो ।

हो मरालिनी मानस सर की ऋतुराज सदृश गदराई हो।

क्यों मौन आँसुओं की भाषा सी दिए अधर पर ताला हो?

प्रिय मदिर नयन बंधूकअधर की ढरकाती मधुशाला हो।”

बस अपलक तुम्हें रही तकती बावरिया बरसाने वाली

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥१२॥

कहते थे “मौन उषा गवाक्ष से प्राण! झांकता सविता हो।

परिरंभण-व्याकुल युगल बाहु की अथवा तन्मय कविता हो।

हो बिम्बाधर अरुणाभ पाणिपद नवल नीरधर अभिरामा ।

ओ नवल नील परिधान मंडिता सित दशना कुंतल श्यामा।

री नव अषाढ़ की सजल घटा सी श्यामल कुंतल बिखराये।

अति चपल करों से चंचल अंचल अम्बर उर पर सरकाए ।

अब पलक उठा पूछे किससे क्या बावरिया बरसाने वाली-

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥१३॥