कहते थे प्राण “अरी, तन्वी! मैं कृष कटि पर हो रही विकल ।
कह रही करधनी ठुनक-ठुनक रो रहे समर्थन में पायल ।
भय है उरोज-परिवहन पवन से हो न क्षीण त्रिबली-भंजन ।
रोमांच पुलक-वलयिता कल्प-विटपिनी लता काया कंचन ।
जब किया अलक्तक-रस रंजित हो गये चरण बोझिल-विह्वल् ।
कुन्तल-सुगन्ध-भाराभिभूत किसलयी सेज से गयी बिछल ।”
प्रिय! इस स्नेहामृत की तृषिता बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥38॥

था कहा सुमन-मेखला-वहन से बढ़ती श्वांस समीर प्रबल ।
प्रश्वांस-सुरभि-पंकिल सरोज-मुख आ घेरते भ्रमर चंचल ।
प्राणेश्वरि सम्बोधन से ही खिल जाते गाल गुलाबी हैं ।
हो जाते तेरे नील जलद से तरलित दृग मायावी हैं ।
मधुकर-पक्षापघात-मारुत कर जाता भृकुटि-अधर-स्पंदन।
यह कह-कह रस बरसाने वाले छोड़ गये क्यों मनमोहन ।
कब विधु-मुख देखेगी विकला बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥39॥

क्या कहूं आज ही विगत निशा के सपने में आये थे प्रिय !
तुम करते-करते सुरत प्रार्थना किंचित सकुचाये थे प्रिय !
मुझमें उड़ेल दी अपने चिर यौवन की अल्हड़ मादकता ।
दृग-तट पर दिया उतार हंस, थी पलकों पर गूंथी मुक्ता ।
अभिसार-सदन में दीपक की लौ उकसाया हौले-हौले ।
इतने भावाभिभूत थे प्रिय फ़िर अधर नहीं तेरे बोले ।
उस प्राणेश्वर को ढूंढ़ रही बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥40॥

निज इन्द्रनीलमणि-सा श्यामल कर में ले उत्तरीय-कोना ।
सहला मेरा शरदिन्दु भाल जाने क्या-क्या करते टोना ।
था गूंथ रहा नीलाम्बर में चन्द्रमा तारकों की माला ।
जाने क्या-क्या तुमने प्रियतम! मेरे कानों में कह डाला ।
आवरण-स्रस्त प्रज्ज्वलित अरुण किसलय समान कोमल काया।
मृदु पल्लव-दल-रमणीय-पाणि-तल से तुमने प्रिय! सहलाया।
जल-कढ़ी मीन-सी तड़प रही बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥41॥

अधरों पर चाहा हास किन्तु लोचन में उमड़ गया पानी ।
बहलाने लगी प्रेम की कह प्राचीन कहानी मृदुवाणी ।
इतने में ही वाटिका से कही प्रिय! विरही कोकिल कूका ।
मैं कह न सकूंगी क्यों निज आनन से मैनें दीपक फ़ूंका ।
लज्जित आनन पर अनायास ही श्यामकेशदल घिर आये।
तुम पीत पयोधर बीच विंहसते अपना आसन फ़ैलाये ।
प्रिय, अब भी वही तुम्हारी है , बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥42॥

सुधि करो प्राण! कहते गदगद “प्राणेश्वरि, तुम जीवनधन हो।
मुझ पंथ भ्रमित प्रणयी पंथी हित तुम चपला-भूषित घन हो।
तव अंचल की छाया में ही मेरी अभिलाषा सोती है ।
तव प्रणय-पयोधि-लहरियां ही मेरा मानस तट धोती हैं ।
तव मृदुल वक्ष पर ही मेरे लोचन का ढलता मोती है ।
तव कलित-कांति-कानन में ही मेरी चेतनता खोती है ।
अब सहा नहीं जाता विकला बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥43॥

सुधि करो प्राण! कहते “मृदुले! तारुण्य न फ़िर फ़िर आता है।
वह धन्य सदा जो झूम झूम कर गीत प्रीति के गाता है ।
देखो, वसत के उषा-काल ने दिया शिशिर-परिधान हटा ।
मुकुलित रसाल टहनियाँ झूमतीं पुलक अंग में अंग सटा ।
देखो प्रेयसि! नभ के नीचे मारुत मकरंद लुटाता है ।
उन्मत्त नृत्य करता निर्झर गिरि-शिखरों से कह जाता है ।
चिर-तरुण, दर्शनोत्सुका विकल बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥44॥

था कहा “प्रिये! लहरते सुमन ज्यों फ़ेनिल-सरिता बरसाती ।
आनन्द-गीत गा रहा भ्रमर कुहुँकती कोकिला मदमाती ।
मेरे जीवन की चिर-संगिनि परिणय-पयोधि उफ़नाता है ।
आकाश उढ़ौना सुमन बिछौना तृण-दल पद सहलाता है ।
आओ हम अपने प्राणों को खग के कलरव में लहरा दें ।
द्रुत पियें अमर आसव वासंती मार पताका फ़हरा दें ।
तारुण्य-तरल ! है परम विकल बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥45॥

था कहा विहँस “मृगनयनी! मेरा कर हथेलियों में ले लो ।
मृगमद से सुरभित करो पयोधर सरसिज कलिका से खेलो।
आओ रसाल-तरु के नीचे आदान-प्रदान करें चुम्बन ।
नीरव-निशीथ के परिरंभण में सुनें हृदय का मृदु-स्पंदन ।
गाओ गीतों के बिना निशा का स्वागत कब हो पाता है ।
आ लिपट जुड़ा लें तप्त प्राण यह वासर ढलता जाता है” ।
हो रसिक शिरोमणि! कहाँ विकल बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥46॥

सुधि करो प्राण! कहते थे तुम,”बस प्राणप्रिये! इतना करना।
तेरी स्मृति में विस्मृत जाये संसृति का जीना-मरना ।
तेरी पीताभ कुसुम-काया मेरे कर-बंधन में झूले ।
तव मलय-पवन-प्रेरित दुकूल लहरा मेरा आनन छू ले ।
गूँथना चिकुर में निशिगंधा की नित तटकी अधखिली कली।
तेरी पायल की छूम्-छननन् ध्वनि ढोती फ़िरे हवा पगली ।”
खोजती निवेदक को विकला बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥47॥