सुधि करो कहा था,”कभीं निभृत में सजनी! तेरा घूँघट-पट।
निज सिर पर सरका लूँ फ़िर चूमूँ नत-दृग अधर-सुधा लटपट।
छेड़ना करुण पद कुपित कोकिला रात-रात भर सो न सके ।
अलकों का गहन तिमिर बिखराना विरह-सवेरा हो न सके ।
रूठना पुनः अवगुण्ठन से मनुहार निहार उमड़ पड़ना ।
तुम इन्द्रधनुष-सी विनत, अधर झुक मेरे अधरों पर धरना।”
मनुहार-विशारद! आ, विकला बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥48॥

प्रिय! झुका कदम्ब-विटप-शाखा तुम स्थित थे कालिन्दी-तट पर।
विह्वल सुनते थे लहरों का स्नेहिल कल-कल-कल छल-छल स्वर।
टप-टप झरते थे सलिल-बिन्दु थे सरसिज-नयन खुले आधा ।
भावाभिभोर हो विलख-विलख कह उठते थे राधा-राधा ।
थी मुदित प्रकृति, उत्सवरत थी नीचे वसुन्धरा,ऊपर नभ ।
खोये थे जाने कहाँ, पास ही थी मैं खड़ी प्राणवल्लभ !
उद्गार तुम्हारा सुन लिपटी बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥49॥

सुधि करो कहा था, “प्रेम-पर्व पर पंकिल उल्कापात न हो ।
जो प्रेयसि-परिरंभण-विहीन वह रात न हो, वह प्रात न हो ।
परिमल-प्रसून ले बहे पवन नित ज्योतित करे अवनि हिमकर।
लहरे पयोधि, प्रिय पिये सतत पियूष-प्रवाहित-प्रिया-अधर ।
नित धेनु-धूलि वेला में खेलें आँख मिचौनी दिन-रजनी ।
भ्रमरों के गुनगुन पर थिरके तितली प्रसून-संगिनी बनी ।”
उद्गारक! कहाँ छिपे विकला बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥50॥

क्या नहीं कहा प्रिय! “मंजु-अँगुलियाँ खेलें प्रेयसि-अलकों में।
तारक-चुम्बित सित-तुहिन-बिन्दु झलकें वसुधा की पलकों में।
प्रातः समीर सुन्दरि-कपोल छू रोमांचित कर जाता हो ।
सागर निर्झरिणी को धरणी को इन्दु सप्रेम मनाता हो ।
सरसिज-संकुल-सर दिशा व्यर्थ जिसमें शुक-पिक-स्वर घात न हो।
देखूं न कभीं गिरि-शिखर जहाँ पर निर्झर-नीर-निपात न हो ?”
आ प्रेम-पुरोहित ढूँढ़ रही बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥51॥