था कहा “अधर-रस-सुधा पिला” तन्वंगी ने तब था पूछा ।

क्या नाथ प्रणय प्रांगण का कलरव फिर हो जाएगा छूछा ।

घट रिक्त त्याग कर क्या हम फिर ले लेंगे मग अपना-अपना ।

वह फूट-फूट बिलखने लगी छीनो निज नाम न प्रिय अपना ।

दे गयी निगोड़ी दगा नींद तब अरुणशिखा ध्वनी थी गूँजी ।

श्यामल ने कहा जगा ही क्यों रोती होगी मेरी पूंजी।”

रख झूल गयी ग्रीवा में कर बावरिया बरसाने वाली ।

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥ ८॥

सुधि करो कहा था तुमने ही “चाहता नहीं कुछ और प्रिये!

तुम रहो तुम्हारा बंधन हो जग को दुलारता इसीलिये।

नीलाभ गगन पीताभ सुमन विहँसती पूर्णिमा राका हो ।

पावस घन से अभिसार हेतु उड़ती नभ बीच बलाका हो।

तुम अंकमालिका बनी निहारो कुटिल अलक स्वच्छंद किए ।

हमको इतना ही वांछित है जो जैसे चाहे जिए-जिए ।”

है वही पसारे पलक खड़ी बावरिया बरसाने वाली।

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥९॥