कहते थे हे प्रिय! “स्खलित-अम्बरा मुग्ध-यौवना की जय हो ।
अँगूरी चिबुक प्रशस्त भाल दृग अरूणिम अधर हास्यमय हो ।
वह गीत व्यर्थ जिसमें बहती अप्सरालोक की बात न हो ।
परिरंभण-पाश-बॅंधी तरूणी का धूमिल मुख जलजात न हो।
कहता हो प्रचुर प्रेम-सन्देशा विद्युत विलसित जलद चपल।
उठता हो केलि-विलास-दीप्त उद्दाम कामना-कोलाहल।
क्या वीतराग हो गये विकल” बावरिया बरसाने वाली।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥52॥


सुधि करो प्राण! वह भी कैसी मनहरिणी निशा अनूठी थी।
सारी यामिनी विलग तुमसे प्रिय मान किये मैं रूठी थी।
गलदश्रु मनाते रहे चरण-छू छोड़ो सजनी नहीं-नहीं।
तेरा नखशिख श्रृँगार करूँ इस रजनी में कामना यही।
रक्ताभ रंग से रचूँ प्राण ! सित पद-नख में राकेश-कला।
आलता चरण की चूम बजे नूपुर-वीणा घुँघरू-तबला।
दुलराने वाले ! आ विकला बावरिया बरसाने वाली।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥53॥

“पिंडलि पर आँकू”, कहा श्याम “लतिका दल में खद्योत लिये।
नव कदलि-खम्भ मृदु पीन-जघन पर पुष्पराग दूँ पोत प्रिये!
विरॅंचू नितम्ब पर नवल नागरी व्रजवनिता बेचती दही।
पदपृष्ठप्रान्त में अलि-शुक-मैना मीन-कंज-ध्वज-शंख कही्।
फिर बार-बार बाँधू केहरि-कटि पर परिधान नवल धानी।
अन्तर्पट पर रच दूँ लिपटी केशव-कर में राधा रानी।”
हो चतुर चितेरे! कहाँ, विकल बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥54॥

था कहा ”पयोधर पर कर मेरे नील-झीन-कञ्चुकी धरें।
बाँधे श्लथ-बन्धन-ग्रंथि सुभग कुच अर्ध छिपे आधे उभरे।
रच दूँ पयोधरों के अन्तर में हरित-कमल-कोमल डंठल।
रक्ताभ चंचु में थाम उसे युग थिरकें बाल मराल धवल।
आवरण-विहीन उदर-त्रिबली में झलके भागीरथी बही।
हीरक-माला में गुँथी मूर्ति हो प्रथम-मिलन-निशि की दुलही।।“
ओ मनुहारक! आ जा विकला बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥55॥