सुधि करो प्राण पूछा तुमने ” वह पीर प्रिये क्या होती है ।

जिसकी असीम वेदना विकल हो निशा निरंतर रोती है।

आया न अभी ऋतुराज तभीं होती उजाड़ क्यों वनस्थली।

क्यों नंदनवन का प्रिय-परिमल बांटता प्रभंजन गली-गली ?

स्वप्निल निशि में क्यों चीख-चीख उठती न कोकिला सोती है?

निष्कंप दीप लौ पर पतंग बालिका कलेवर धोती है।”

बस टुकटुक मुख देखती रही बावरिया बरसाने वाली

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥ १५॥

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सुधि करो प्राण थी अंकगता किसलय काया अधखुले नयन।

श्लथ श्वांस सुरभि संघात जन्य थे काँप-काँप जाते पृथु स्तन।

छू मद-घूर्णित मेरे कपोल सिहरती रही कुंदन बाली।

तुम मृदु करतल से सहलाते थे मेरी अलकें घुंघुराली।

“जग में सर्वोत्तम कौन प्रिया?” पूछा था तुमने वनमाली ।

तब बाहुलता में बाँध तुम्हें मैं विहंस उठी कह “पंचाली”।

फिर भाव विलीन हुई तुममें बावरिया बरसाने वाली।

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥ १६ ॥

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भूलते न क्षण प्रियतम इंगित से तुमने मुझे बुलाया था।

प्राणेश्वरि! मत छोड़ना मुझे यह कहकर बहुत रुलाया था।

सुधि करो प्राण! रस-रंजित निशि में अवगुंठन-पट खींचा था ।

मृदु मदिर अधर पर ‘पंकिल’-उर का प्रणय-पयोधि उलीचा था।

पूछा ” भाती न उषा, संध्या पर क्यों बलिहारी होती हो ?

नीरव निशीथ में मधु शैय्या पर श्रद्धा-सुमन संजोती हो ?”

क्या कहे विराट प्राण ! बौनी बावरिया बरसाने वाली-

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥ १७॥