सिक्ता कर रही सुरंग चूनरी ऋतु पावसी निगोड़ी थी
स्मृति कौंध गयी कैसे मोहन से मचती होड़ाहोड़ी थी
किस विधि भींगा था पाग उपरना हार गए थे बनवारी
सिर नवा खड़े थे हरी ताली दे दे हंसती थी व्रजनारी
थे नवल किशोर कुञ्ज में स्थित दे कोमल कर में करमाला
शतशत लीला तरंग स्मृति में बह गयी विरहिणी व्रजबाला
रसिकेश्वर!बात निहार रही बावरिया बरसाने वाली
क्या
प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली


बोलीसुधि करो प्राण !कहते थे हमने देखा है सपना
वह मधुबेला भूलती नहीं भूलता अधरों का कंपना
देखा था अनाघ्रात कलिका सी किए जलज लोचन नीचे
थी खड़ी वल्लभा वदन इंदु पर नील झीन अंचल खींचे
मृदु दर्पणाभ कोमल कपोल की हुई असित अरुणाई थी
नव कुबलयदलपड़नख से रचती भू पर निज परछाईं थी
सपने
में अपना किया वही बावरिया बरसाने वाली
क्या
प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

कहते “तव अरुण राग पद से भू अम्बर छपना देखा था
झलकते
नलिन लोचन दल से दृग सलिल टपकना देखा था
निज भुज प्रलंब से मसृण कलेवर थाम अंक में खींचा था
मधु अधरपुटों परपंकिलउर का प्रणयपयोधि उलीचा था
था प्राण! दलितद्युति किसलयवपु निकलती उष्ण थी दीर्घ श्वांस
औरऔर खींचते गए प्राणेश्वर ! मुझको और पास
विस्मृत कैसे हो गयी हाय बावरिया बरसाने वाली
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली