सुधि करो अंक ले मुझे कहा था अभीं अभीं चंदा निकला है
कैसे कहती ढल गयी निशा लाई है उषा वियोग- बाला है ।
बोलते कहाँ है अरुणचूड़ किस खग को उड़ते देखा है ।
अन्तर में अभीं समानांतर सप्तर्षि गणों की रेखा है ।
निकटस्थ सरित का सेतु लाँघ काफिला नहीं कोई निकला ।
अरुणिमा क्षितिज में कहाँ तुम्हें क्या दीख पड़ीं कोई चपला ।
सुनाती प्रभात की बात न अब बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥३४॥

था कहा “शुक्र झांकता न मलिना उडुगण की चटकारी है ।
क्या राम- राम कह रहा कहीं देवालय बीच पुजारी है ?
है अभी पूर्ण निस्तब्ध यामिनी वायस के स्वर शांत पड़े ।
है कहाँ धेनु-दोहन-शिशु-नर्तन मौन सभी जलजात खड़े ?
मलयानिल झुरक-झुरक सहलाता कहाँ तुम्हारा मृदु आनन्?
है कहाँ भानु को चढ़ा रहे जल वाटू-तपस्वि-गण देख गगन ?
वह स्थिति न भुलाए भूल रही बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥३५॥