प्रिय ! इस विस्मित नयना को कब आ बाँहों में कस जाओगे ।
अपना पीताम्बर उढ़ा प्राण ! मेरे दृग में बस जाओगे ।
प्रिय! तंडुल-पिंड-तिला वेष्टित सी गाढ़ालिंगन समुहाई ।
युग गए काय यह जल पय-सी तव तन में नहीं समा पायी ।
हो जहाँ बसे क्या वहाँ प्राण ! कोकिला कभीं बोलती नहीं ।
जल गया मदन-तन क्या मंथर, मलयज बयार डोलती नहीं ।
सह सकती कैसे विषम बाण बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्रान निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥३२॥
———————————————————-

मम-अधर दबा करते थे सी-सी ध्वनित सम्पुटक चुम्बन जब ।
पृथु उरु उरोज का बढ़ जाता था वसन विहीन विकम्पन तब ।
प्रिय! तेरे स्मित कपोल चिबुकाधर कुंद दशन से डंसती थी ।
मैं हार हार कर भी चुम्बन की द्युत क्रिया में फंसती थी ।
पूछा था मैं तो नित अतृप्त क्या तुम भी प्रिये ! तरसती हो ?
निद्रित पलकों में भी आ आ क्यों चपल बालिके बसती हो ?
यह मदन-विनोद-विछोह-विकल बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन की वनमाली ॥ ३३॥