थे नाप रहे नभ ओर-छोर चढ़ धारधार पर धाराधर ।

दामिनी दमक जाती क्षण-क्षण श्यामलीघटाओं से सत्वर ।

कल-कल छल-छल जलरव मुखरित था यमुना-पुलिन मनोहारी ।

तन से अठखेली कर बरबस खींचता प्रभंजन था सारी ।

परिरंभण में बांधे विटपों को थीं वल्लरी बिना बाधा।

अंचल पसार कर लगी बिलखने आ जा राधा के कांधा।

व्रजचंद्र! पधारो बिलख रही बावरिया बरसाने वाली।

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥ २॥