सुधि करो कुञ्ज से उमड़-घुमड़ देखती स्निग्ध श्यामल जलधर ।

पार्श्वस्थ स्वामी चुम्बिता अवनि पर बिखराती उरोज अम्बर ।

प्राणेश पाणिश्रृत ईषत चुम्बित छुई-मुई सी कभीं-कभीं।

जब प्रिया-प्रयाण-क्षण में कहती “प्राणेश! शेष है निशा अभीं ।”

अगणित वर्जन पर भी जब कुंतल लहरा देता मलय पवन ।

द्रुत चरण क्षेप से कर उठते तत्-थेई-थेई-थेई नूपुर नर्तन ।

उस स्मृति में हे प्रिय ! बही विकल बावरिया बरसाने वाली –

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली॥ २२ ॥

——————————————————————-

सुधि करो प्राण ! गोविन्द-गीत’पंकिल’ स्वर करती थी गायन ।

पूछती “प्राण! फ़िर कब लौटेंगे ये आषाढी पावस-घन?

क्यों जलद-हंस-कोकिल-शुक बनते प्रेमपुरी के पटु धावन ?

क्यों तेरी अप्रतिम छवि निहार उमड़ता विलोचन में सावन ?”

था कहा “निलय से झाँक रहे प्रियतमे! विहंगम से पूछो ।

चुम्बन जड़ देता क्यों प्रिय निज आनन चन्द्रोपम से पूछो ।”

अब क्या न बतकही-योग्य रही बावरिया बरसाने वाली-

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥ २३॥

——————————————————————–