सुधि करो प्राण ! था कहा कभीं “चिर अमर वल्लभे वे मधुक्षण ।

रोमांच कंटकित मृदु बाँहों के शत-शत ममतामय बंधन ।”

प्रिय-पाणि-संस्थिता कल-कल निरता तटिनी-तीर नीर-सीकर ।

निश्चल निहारते दीपशिखा सी अस्ताचलगामी दिनकर।

मम भरी नर्म-कांपती हथेली थाम अधर पर धरे अधर।

लज्जानत विनत वदन दशनों से दाब तर्जनी गयी सिहर।

उन्मुक्त कुंतला वही विकल बावरिया बरसाने वाली-

क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥२४॥

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कर्णावलम्बि कम्पित कुंडल स्वेदाम्बु-सिक्त मनसिज-मथिता.

लिपटती लता-सी सीत्कृत वलयित स्कंधारोहण अभिलषिता ।

तुम कोटि-काम-चेष्टा-चंचल द्रुत कुञ्ज-तिमिर में गए समा।

बाँहों में केसरिया दुकूल का शेष रह गया कोर थमा।

श्लथ-कुंतल-कुसुम-सुरभि-मूर्छित मन के हो गए विमुग्ध हिरन ।

क्या याद न उडुगन-खचित निशा के लिए दिए अगणित चुम्बन ?

आ जा कृपणा के धन ! विकला बावरिया बरसाने वाली-

क्या प्राण निकालने पर आओगे जीवनवन के वनमाली॥२५॥

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