पूछा था ” क्यों अन्तक करस्थ सायक सहलाता मृगछौना ?
क्यों नभ चुम्बन हित ललक लहराता भूतलस्थ पादप बौना ?
लौटेंगे प्रिय न प्रतीति विपुल बीतीं बसंत की मधु राका ।
फिर भी विराहज स्पंदन न स्तब्ध क्यों प्रोषित पतिका प्रमदा का ?
क्यों सलिल राशिः भैरव निनाद लोटता अवनि पर धुन माथा ?
पावस घन चपला लिए अंक में धावित यह कैसी गाथा ?
बस लिपट गयी कुछ कह न सकी बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली॥ २०॥
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पूछा तुमने अति पास बैठ ” अब भी न जान पाया आली ।
क्यों तव प्रसून-वपु छवि सँवार थकता न कभीं भी वनमाली ।
किस महाकाव्य की सरस पंक्ति हो किस स्वर की मूर्छना कला।
किस कविता की आनंद-उर्मि किस दृग की सलिल विन्दु विमला ।
क्यों थम चीर तेरा समीर गाता विहाग दे दे ताली
परिरंभ विचुम्बित अधरामृत की क्यों न रिक्त होती प्याली ?”
बोली न, विमुग्ध रही सुनती बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली॥२१॥