परिमल-सम्पुट पिक-स्वर-गुंजित उन्मन मीठे तीसरे पहर ।
जाने किस अनुकम्पा में प्रिय ! झुक गए ललक मम चरणों पर ।
नटखटपन में जहर गयी प्राण!कुंतल में गूंथी सुमन-लड़ी ।
तेरी ग्रीवा पर रख दुकूल थी निकट सिमटती मौन खड़ी ।
चौमासे की उफनती सरित सी नील साटिका फहराती ।
झीनाम्बर से झलकती गुराई लोचन-भाषा सिखलाती ।
डूबी प्रिय लीला सिन्धु बीच बावरिया बरसाने वाली-
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली॥ २८॥
————————————————————
मम उरज प्रान्त पर शांत बाल सा रख कपोल थे किए शयन ।
सहलाती मसृण पाणि कुंतल अर्धोन्मीलित जलजाभ नयन ।
कहती थी “प्राण! काल कवलित हो जे न प्रणय मिलन घातें।
निस्पंद शून्य में खो न जाँय ये रस-रभस-कातर रातें ।
वर्जन की वे अंगुलियाँ आज भी मेरे अधर दबा जातीं ।
वह छवि न भूलती धरे चिबुक नभ-ध्रुव-अरुंधती दिखलाती।
लीला सहचर ! सुधि लो विकला बावरिया बरसाने वाली –
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥२९॥