तिल तिल तरणी गली नहीं दिन केवट के बहुरे मधुकर
वरदानों के भ्रम में ढोया शापों का पाहन निर्झर
सेमर सुमन बीच अटके शुक ने खोयी ऋतु वासंती
टेर रहा मानसप्रबोधिनी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।216।।

देह गेह कोई न तुम्हारा नश्वर संयोगी मधुकर
तुम तो प्रिय की गलियों में फिरने वाले योगी निर्झर
बहने दे उसके प्रवाह में सत्ता संज्ञाहीन परम
टेर रहा है आशुतोषिणी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।217।।

बिना अश्रु सच्चे प्रियतम तक पहुँचा ही है क्या मधुकर
सच्चा रस से पावन भावन और न कोई रस निर्झर
ठिठक न तू तो गोपीवल्लभ की गोपिका विकल बौरी
टेर रहा है अमर्यादिता  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।218।।

उसे याद आयेगी तेरी हल्की भी हिचकी मधुकर
व्यथा कथा अनकही तुम्हारी भी सब उसे ज्ञात निर्झर
मत घबरा वह माँ है लेगी करुण गोद में बिठा तुम्हें
टेर रहा है अन्तरंगिणी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।219।।

साधन साध्य नहीं वह सच्चा कृपा साध्य ही है मधुकर
देख तुम्हारी दीन दशा विह्वल हो उठता है निर्झर
वह मायास्वामी तू माया दास बॅंधा छटपटा रहा
टेर रहा है मायामुक्ता मुरली   तेरा    मुरलीधर।।220।।

दूसरे चिट्ठों की प्रविष्टियाँ