तरुण तिमिर देहाभिमान का तुमने रचा घना मधुकर
सुख दुख की छीना झपटी में चैन हुआ सपना निर्झर
धूल जमी युग से मन दर्पण पर हतभागी जाग मलिन
टेर रहा तनतुष्टिनिरस्ता मुरली   तेरा    मुरलीधर।।211।।

पलकें खुलीं रहीं दिन दिन भर पर तू जगा कहाँ मधुकर
दिवास्वप्न ताने बाने बुनने में व्यस्त रहा निर्झर
किया याचना मंदिर मंदिर बना भिखारी का जीवन
टेर रहा है मोहमर्दिनी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।212।।

चैत्र बौर बैशाख भोर सी जेठ छाँह जैसी मधुकर
घटा अषाढ़ी श्रावण रिमझिम भाद्र दामिनी सी निर्झर
आश्विन की चन्द्रिका कार्तिकी पवन अगहनी सरिता सी
टेर रहा रोमांचकारिणी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।213।।

पूष दुपहरी माघ अनल फाल्गुनी फाग जैसी मधुकर
उसकी सेज स्पर्श आकृति स्मिति करुणामयी दृष्टि निर्झर
निज खोना ही उसको पाना श्वाँस श्वाँस में रचा बसा
टेर रहा आनन्दनिर्झरी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।214।।

दो अतियों के बीच झूल तू सुखी न रह सकता मधुकर
बहुत कसी अति श्लथ वीणा से राग न बह सकता निर्झर
चलनी में जल भर भर अपना गला सींच पायेगा क्या
टेर रहा है दृगोन्मीलनी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।215।।
—————————————————————
अन्य चिट्ठों की प्रविष्टियाँ –
# स्वर अपरिचित….  (सच्चा शरणम )