अखिलं मधुरम् : पंकिल की रचनाएं

यह ब्लॉग (पंकिल) पिताजी श्री प्रेम नारायण पंकिल की दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं प्रेरक स्वान्तःसुखीन रचनाओं को आप तक पहुँचायेगा। आप एक ऐसी प्रतिभा से मिलेंगे जिसने प्रदर्शन विरहित श्रेष्ठ साहित्य रचा तथा अद्यतन वह क्रम गतिशील है। उस साहित्य के अवगाहन के लिए मैं आपको ‘अखिलं मधुरम्‘ पर आमंत्रित करता हूँ। स्वागत है।

मैं हिमांशु हूँ। हमेशा हँसना मेरी आदत है, स्वभाव कह लीजिये। आपने मेरा नाम देखा न! हिमांशु, मतलब चन्द्रमा। चन्द्रमा हँसता है सदा मीठी सी हँसी– मधुहास। 

अपनी कस्बाई जिन्दगी में रोज निखरता है यह चिन्तनशील मन। आँखे मुचमुचाते गौरेया के बच्चे की तरह चहचहाता निकलता हूँ अपने स्व के खोल से। निरखता हूँ संसार, जो दिखता है वह भी और जो नहीं दिखता है उसकी दृश्य चाह भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करने को प्रेरित करती है। इसलिये अपना कुछ भी नहीं पर संसार का ही सब लेकर इतराता हूँ, लिखता जाता हूँ।

सच्चा शरणम नाम का एक चिट्ठा लिखता हूँ पहले से ही। अभी कुछ और डूबो मन की टेक लेकर। डूबता उतराता हूँ, लिखता जाता हूँ। कवितायें बहुत पहले लिख दी जाती रहीं अनायास इसलिये कभीं इन्हें प्रयत्न नहीं कहा। पर जब चिट्ठाकारी में कुछ भी लिख दो कविता होगी की चेतना व्याप्त देखी तो ऐसा ही नया प्रयत्न करने भी निकल पड़ा, यद्यपि सफल नहीं हुआ। इस ब्लॉग पर लिखी कविताएं बाद में सच्चा शरणम् पर ही प्रकाशित कर दी गईं। संसार को अखिलं मधुरम मान कर मुग्ध होता रहा और उसकी अभिव्यक्ति करती अपने पिता की रचनाधर्मिता से चमत्कृत, इसलिये अखिलं मधुरम में पिता जी की रचनायें देता रहा। अभीं तो आँखें नहीं भरीं।

उस अदृष्ट और अबूझ  की कारगुजारी सदा समझने की कोशिश करता हूँ, और उससे दोहराता रहता हूँ–

“एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बंधन की चाह हो? “

हिन्दी के साहित्य को आंग्ल भाषा  में परिचित कराने की कोशिश में बन पड़ा एक ब्लॉग Eternal Sharing Literature. सब आपके सामने है। मैं भी, मेरी करनी भी!

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