वह विराम जानता न क्षण क्षण झाँक झाँक जाता मधुकर
दुग्ध धवल फूटती अधर से मधुर हास्य राका निर्झर
प्रीति हंसिनी उसकी तेरे मानस से चुगती मोती
टेर रहा है अविरामछंदिनी  मुरली  तेरा  मुरलीधर।।206।।

अंगारों पर भी प्रिय से अभिसार रचाता चल मधुकर
अज अनवद्य अकामी को लेना बाँहों में भर निर्झर
जन्म जन्म के घाव भरेंगे फूल बनेंगे अंगारे
टेर रहा है जयजयवंती मुरली   तेरा    मुरलीधर।।207।।

वह अद्भुत रस की हिलोरमय सिंधु कुलानन्दी मधुकर
शिशु अबोध मुकुलित किशोर वह युवा जरठ काया निर्झर
मुक्ता मण्डित निलय वही वह तृण कुटीर पल्लव पंकिल
टेर रहा है स्वबसचारिणी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।208।।

प्रिय चिंतन प्रिय रस मज्जन ही रुचिर सुरंग सरस मधुकर
उससे होकर अपर जगत में कर सकता प्रयाण निर्झर
एक अनिर्वच दिव्य ज्योति में तुमको नख शिख नहला कर
टेर रहा है आलोकपंखिनी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।209।।

मन चाहा अंचल कब किसको जग में मिल पाता मधुकर
बुझती तृषा न अधर आस में सूखा रह जाता निर्झर
लेता कूल छीन लहरों की सब उर्मिल अभिलाषायें
टेर रहा है तृप्तिपयोदा मुरली   तेरा    मुरलीधर।।210।।
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अन्य चिट्ठों की प्रविष्टियाँ –
# करुणावतार बुद्ध-५   (सच्चा शरणम )