बार बार पथ घेर घेर वह टेर टेर तुमको मधुकर
तेरे रंग महल का कोना कोना कर रसमय निर्झर
सारा संयम शील हटाकर सटा वक्ष से वक्षस्थल
टेर रहा है हृदयवल्लभा मुरली  तेरा  मुरलीधर।।166।।

हृदय सिंधु के द्युतिमय मोती पलकों में भर भर मधुकर
सच्चा सरसिज मृदुल चरण पर अर्घ्य चढ़ाता चल निर्झर
वह पूर्णेन्दु प्राण वारिधि में स्नेहिल लहरें उठा उठा
टेर रहा है प्रीतिकातरा मुरली   तेरा    मुरलीधर।।167।।

प्रेम बावरे पर यह जग कीचड़ उछालता है मधुकर
प्रेम पथिक को स्वयं बनाना पड़ता अपना पथ निर्झर
पथ इंगित करती दुलराती प्रियतम की प्रेरणा कला
टेर रहा है  प्रीतिप्रगल्भा मुरली   तेरा    मुरलीधर।।168।।

अद्भुत उसका खेल बिन्दु में सिन्धु उतर आता मधुकर
लहर लहर में उठ सागर ही बिखर बिखर जाता निर्झर
नभ पट पर उडुगण लिपि में लिख नित नित नूतन संदेशा
टेर रहा है प्रीतिपत्रिका मुरली   तेरा    मुरलीधर।।169।।

जाने तुममें क्या पाता नित बन ठन कर आता मधुकर
तृप्त न होता पुनः पुनः वह चूम चूम जाता निर्झर
मिलन प्रतीक्षा की वेला बन करता लीला रस वर्षण
टेर रहा है मिलनमंदिरा मुरली  तेरा   मुरलीधर।।170।।

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