ज्यों तारक जल जल करते हैं धरती को शीतल मधुकर
नीर स्वयं जल जल रखता है यथा सुरक्षित पय निर्झर
वैसे ही मिट मिट प्रियतम को सत्व समर्पण कर पंकिल
टेर रहा है सत्वसंधिनी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।161।।

प्राणों की मादक प्याली में प्रेम सुधा भर भर मधुकर
घूँघट उठा निहार मुदित मुख तुम्हें पिलाता रस निर्झर
मोहित मन की टिमटिम करती स्नेहिल बाती उकसाकर
टेर रहा है प्रीतिपिंजरा  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।162।।

उसकी स्मृति में रोती रजनी गीला पवनांचल मधुकर
उसकी स्मृति की गहन बदलियों से बोझिल अम्बर निर्झर
प्रेमासव की एक छलकती कणिका के हित लालायित
टेर रहा है प्रीतिकोकिला मुरली   तेरा    मुरलीधर।।163।।

बड़ी निराली गुणशाली सच्चे की मधुशाला मधुकर
जिसे पकड़ती उसको ही कर देती मतवाला निर्झर
निजानन्द का स्वाद चखाती उमग उमग आनन्दमयी
टेर रहा है प्रेमतरंगा  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।164।।

मरना सच्चा रस तो तू सोल्लास वहीं मर जा मधुकर
यदि वह निद्रा है तो उसमें ही सहर्ष सो जा निर्झर
उसका स्नेहिल उर स्पर्शित कर बहने दे पंकिल श्वांसें
टेर रहा है स्नेहाकुंरिता मुरली   तेरा    मुरलीधर।।165।।

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# मैं तो निकल पड़ा हूँ …(सच्चा शरणम )

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