सोच अरे बावरे कर्म से ही तो बना जगत मधुकर
चल उसके संग रच एकाकी एक प्रीति पंकिल निर्झर
प्राण कदंब छाँव में कोमल भाव सुमन की सेज बिछा
टेर रहा सुखसृष्टिविधाना मुरली तेरा मुरलीधर।।41।।

रख निश्शब्द स्नेह से उसके आनन पर आनन मधुकर
भर ले रिक्त हृदय की गागर उमड़ा सच्चा रस निर्झर
प्राणों से प्राणों का पंकिल चलने दे संवाद सरस
टेर रहा है संवादसर्जिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।42।।

सुमन सुमन प्रति कलिका कलिका मँडराता फिरता मधुकर
क्षुधा पिपासा मिटी न युग से भटक रहा है तू निर्झर
तू मन का मन नहीं तुम्हारा खंड खंड में फंसा चपल
टेर रहा है क्लेशनाशिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।43।।

फेरा तेरा जन्म जन्म का मिटा नहीं लम्पट मधुकर
अभीं और कितना भटकेगा इस निर्झर से उस निर्झर
बहिर्मुखी गुंजन से तेरी भग्न हुई जीवन वीणा
टेर रहा है प्राणगुंजिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।44।।

किया न अवलोकन अंतर्मुख मौन शान्त मानस मधुकर
शान्त चित्त में ही विलीन हो पाता अहंकार निर्झर
सुन विचार शून्यता बीच निज प्रियतम की पदचाप मधुर
टेर रहा है शांतिसागरा मुरली तेरा मुरलीधर।।45।।

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