Author: Prem Narayan Pankil

  • मुरली तेरा मुरलीधर 5

    प्राणेश्वर के संग संग ही कुंज कुंज वन वन मधुकर
    डोल डोल हरि रंग घोल अनमोल बना ले मन निर्झर
    शेश सभी मूर्तियाँ त्याग सच्चे प्रियतम के पकड़ चरण
    टेर रहा है सर्वशोभना मुरली तेरा मुरलीधर।।36।।

    छवि सौन्दर्य सुहृदता सुख का सदन वही सच्चा मधुकर
    कर्म भोग दुख स्वयं झेल लो हों न व्यथित प्रियतम निर्झर
    तुम आनन्द विभोर करो नित प्रभु सुख सरि में अवगाहन
    टेर रहा है प्राणपोषिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।37।।

    ललित प्राणवल्लभ की कोमल गोद मोदप्रद है मधुकर
    प्रियतम की मृणाल बाँहें ही सुख सौभाग्य सेज निर्झर
    प्रेम अवनि वह पवन प्रेम जल प्रेम वह्नि गिरि नभ सागर
    टेर रहा है प्रेमाकारा मुरली तेरा मुरलीधर।।38।।

    डूब कृष्ण स्मृति रस में मानस मधुर कृष्णमय कर मधुकर
    बहने दे उर कृष्ण अवनि पर कल कल कृष्ण कृष्ण निर्झर
    सब उसका ही असन आभरण शयन जागरण हास रुदन
    टेर रहा है सर्वातिचेतना मुरली तेरा मुरलीधर।।39।।

    हृदय कुंज में परम प्रेममय निर्मित अम्बर मधुकर
    उसी परिधि में विहर तरंगित सर्वशिरोमणि रस निर्झर
    इस अम्बर से भी विशाल वह प्रेमाम्बर देने वाला
    टेर रहा है विश्ववंदिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।40।।
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  • मुरली तेरा मुरलीधर 4

    श्वाँस श्वाँस में रमा वही सब हलन चलन तेरी मधुकर
    यश अपयश उत्थान पतन सब उस सच्चे रस का निर्झर
    वही प्रेरणा क्षमता ममता प्रीति पुलक उल्लास वही
    टेर रहा है व्यक्ताव्यक्ता मुरली तेरा मुरलीधर।।31।।

    कर्णफूल दृग द्युति वह तेरी सिंदूरी रेखा मधुकर
    वही हृदय माला प्राणों की वीणा की झंकृति निर्झर
    वही सत्य का सत्य तुम्हारे जीवन का भी वह जीवन
    टेर रहा है परमानन्दा मुरली तेरा मुरलीधर ।। 32।।

    रह लटपट उसको पलकों की ओट होने दे मधुकर
    मिलन गीत गाता लहराता बहा जा रहा रस निर्झर
    तुम उसकी हो प्राणप्रिया परमातिपरम सौभाग्य यही
    टेर रहा है हृदयोल्लासिनि मुरली तेरा मुरलीधर।।33।।

    मृदुल मृणाल भाव अंगुलि से छू मन प्राण बोध मधुकर
    रोम रोम में लहरा देता वह अचिंत्य लीला निर्झर
    मधुराधर स्वर सुना विहॅंसता वह प्रसन्न मुख वनमाली
    टेर रहा है सर्वमंगला मुरली तेरा मुरलीधर।।34।।

    नारकीय योनियाँ अनेकों रौरव नर्क पीर मधुकर
    उसके संग संग ले सह ले सब उसका लीला निर्झर
    रहना कहीं बनाये रखना उसको आँखों का अंजन
    टेर रहा है सर्वशिखरिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।35।।
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  • मुरली तेरा मुरलीधर 3

    सो कर नहीं बिता वासर दिन रात जागता रह मधुकर
    जो सोता वह खो देता है मरुथल में जीवन निर्झर
    सर्वसमर्पित कर इस क्षण ही साहस कर मिट जा मिट जा
    टेर रहा सर्वार्तिभंजिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।21।।

    सोच रहा क्या देख देख कितना प्यारा मनहर मधुकर
    मात्र टकटकी बाँध देखते उमड़ पड़ेगा रस निर्झर
    जीवन के प्रति रागरंग का तुम्हें सुना संगीत ललित
    टेर रहा है मंजुमोहिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।22।।

    देख रहा जो उसे देखने का संयोग बना मधुकर
    दिशा शून्य चेतना खोज ले रासविहारी रस निर्झर
    पर से निज पर ही निज दृग की फेर चपल चंचल पुतली
    टेर रहा स्वात्मानुसंधिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।23।।

    तेरे अधरों का गुंजन वह गीत वही स्वर वह मधुकर
    उसे निहार निहाल बना ले पंकिल नयनों का निर्झर
    थक थक बैठ गया तू फिर भी भेंज रहा वह संदेशा
    टेर रहा है शतावर्तिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।24।।

    अपने मन में ही प्रविष्ट नित कर ले उसका मन मधुकर
    बस उसके मन का ही रसमय झर झर झरने दे निर्झर
    जग प्रपंच को छीन तुम्हारा मन कर देगा बरसाना
    टेर रहा है उरनिकुंजिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।25।।

    सबसे सकता भाग स्वयं से भाग कहाँ सकता मधुकर
    भाग भाग कर रीता ही रीता रह जायेगा निर्झर
    कुछ होने कुछ पा जाने की आशा में बॅंध मर न विकल
    टेर रहा स्वात्मानुशिलिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।26।।

    यदि तोड़ना मूढ़ कुछ है तो तोड़ स्वमूर्च्छा ही मधुकर
    जड़ताओं के तृण तरु दल से रुद्ध प्राण जीवन निर्झर
    शुचि जागरण सुमन परिमल से सुरभित कर जीवन पंकिल
    टेर रहा है पूर्णानन्दा मुरली तेरा मुरलीधर।।27।।

    क्या ‘मैं’ के अतिरिक्त उसे तूँ अर्पित कर सकता मधुकर
    शेष तुम्हारे पास छोड़ने को क्या बचा विषय निर्झर
    ‘मैं’ का केन्द्र बचा कर पंकिल कुछ देना भी क्या देना
    टेर रहा अहिअहंमर्दिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।28।।

    किसे मिटाने चला स्वयं का ‘मैं’ ही मार मलिन मधुकर
    एकाकार तुम्हारा उसका फिर हो जायेगा निर्झर
    शब्द शून्यता में सुन कैसी मधुर बज रही है वंशी
    टेर रहा विक्षेपनिरस्ता मुरली तेरा मुरलीधर।।29।।

    क्षुधा पिपासा व्याधि व्यथा विभुता विपन्नता में मधुकर
    स्पर्श कर रहा वही परमप्रिय सच्चा विविध वर्ण निर्झर
    वही वही संकल्पधनी है सतरंगी झलमल झलमल
    टेर रहा है सर्वगोचरा मुरली तेरा मुरलीधर।।30।।

  • मुरली तेरा मुरलीधर 2

    मंदस्मित करुणा रसवर्षी वह अद्भुत बादल मधुकर
    मृदु करतल सहला सहला सिर हरता प्राण व्यथा निर्झर
    मनोहारिणी चितवन से सर्वस्व तुम्हारा हर मनहर
    टेर रहा है उरविहारिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।11।।

    विविध भाव सुमनों की अपनी सजने दे क्यारी मधुकर
    कोना कोना सराबोर कर बहे वहाँ सच्चा निर्झर
    वह तेरे सारे सुमनों का रसग्राही आनन्दपथी
    टेर रहा सर्वांतरात्मिका मुरली तेरा मुरलीधर।।12।।

    मॅंडराते आनन पर तेरे उसके कंज नयन मधुकर
    तृषित चकोरी सदृश देख तू उसका मुख मयंक निर्झर
    युगल करतलों में रख आनन कर निहाल तुमको अविकल
    टेर रहा है मन्मथमथिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।13।।

    सब प्रकार मेरे मेरे हो गदगद उर कह कह मधुकर
    युग युग से प्यासे प्राणों में देता ढाल सुधा निर्झर
    भरिता कर देता रिक्ता को बिना दिये तुमको अवसर
    टेर रहा है नादविग्रहा मुरली तेरा मुरलीधर।।14।।

    माँग माँग फैला कर अंचल बिलख विधाता से मधुकर
    लहरा दे कुरुप जीवन में वह अभिनव सुषमा निर्झर
    उसकी लीला वही जानता ढरकाता रस की गगरी
    टेर रहा है प्रेमभिक्षुणि मुरली तेरा मुरलीधर।।15।।

    गहन तिमिर में दिशादर्शिका हो ज्यों दीपशिखा मधुकर
    मरु अवनी की प्राण पिपासा हर लें ज्यों नीरद निर्झर
    तथा मृतक काया में पंकिल भर नव श्वाँसों का स्पंदन
    टेर रहा है नित्य नूतना मुरली तेरा मुरलीधर।।16।।

    लघु जलकणिका को बाहों के पलने में ले ले मधुकर
    हलराता दुलराता रहता ज्यों अविराम सिंधु निर्झर
    बिन्दु बिन्दु में प्रतिपल स्पंदित तथा तुम्हारा रत्नाकर
    टेर रहा है स्वजनादरिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।17।।

    चिन्तित सोच विगत वासर क्यों व्यथित सोच भावी मधुकर
    प्रवहित निशि वासर अनुप्राणित नित्य नवल जीवन निर्झर
    पल पल जीवन रसास्वाद का तुम्हें भेंज कर आमंत्रण
    टेर रहा है प्रियागुणाढ्या मुरली तेरा मुरलीधर।।18।।

    गत स्मृतियों को जोड जोड क्यों दौड रहा मोहित मधुकर
    सुधा नीरनिधि छोड बावरे मरता चाट गरल निर्झर
    फंस किस आशा अभिलाषा में व्यर्थ काटता दिन पंकिल
    टेर रहा है मधुरमाधवी मुरली तेरा मुरलीधर।।19।।

    गूँथ प्राणमाला मतवाला आनेवाला है मधुकर
    अति समीप आसीन तुम्हारे ही तो तेरा रस निर्झर
    बड़भागिनी तुम्हें कर देगा ललित अंक ले वनमाली
    टेर रहा है मनोहारिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।20।।

  • मुरली तेरा मुरलीधर 1

    विरम विषम संसृति सुषमा में मलिन न कर मानस मधुकर,
    वहां स्रवित संतत रसगर्भी सच्चा श्री शोभा निर्झर !
    सुन्दरता सरसता स्रोत बस कल्लोलिनी कुलानन्दी
    टेर रहा वृन्दावनेश्वरी मुरली तेरा मुरलीधर !! 1 !!

    वर्ण वर्ण खग कलरव स्वर में बोल रहा है वह मधुकर
    विटप वृंत मरमर सरि कलकल बीच उसी का स्वर निर्झर
    उर अंबर में बोध प्रभा का उगा वही दिनमान प्रखर
    टेर रहा है विश्वानंदा मुरली तेरा मुरलीधर ।।2।।

    संसृति सब सच्चे प्रियतम की उससे भाग नहीं मधुकर
    उसमें जागृति का ही प्रेमी बन जा अनुरागी निर्झर
    जो जग में जागरण सजाये वही मुकुन्द कृपा भाजन
    टेर रहा संज्ञानसंधिनी मुरली तेरा मुरलीधर ।।3।।

    जिस क्षण जग में हुए सर्वथा तुम असहाय अबल मधुकर
    उस क्षण से ही क्षीर पिलाने लगती कृष्ण धेनु निर्झर
    अपना किये न कुछ होना है सूत्रधार वह प्राणेश्वर
    टेर रहा अबलावलंबिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।4।।

    छोटी से छोटी भेंटें भी प्रिय की ही पुकार मधुकर
    मुदित मग्न मन नाच बावरे पाया प्रिय दुलार निर्झर
    कहां पात्रता थी तेरी यह तो उसकी ही महाकृपा
    टेर रहा अप्रतिमकृपालुनि मुरली तेरा मुरलीधर।।5।।

    नाम रूप पद बोध विसर्जित कर सच्चामय बन मधुकर
    मनोराज्य में ही रम सुखमय झर झर झर झरता निर्झर
    सच्चे प्रियतम के कर में रख पंकिल प्राणों की वीणा
    टेर रहा अमन्दगुंजरिता मुरली तेरा मुरलीधर।।6।।

    यत्किंचित जो भी तेरा है उसका ही कर दे मधुकर
    करता रहे तुम्हें नित सिंचित प्रभुपद कंज विमल निर्झर
    मलिन मोह आवरण भग्न कर करले प्रेम भरित अंतर
    टेर रहा हे भुवनमोहिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।7।।

    मनोराज्य में देख पुश्पिता उसकी तरुलतिका मधुकर
    उसकी मनहर भावभरी भ्रमरी तितली सरणी निर्झर
    स्नेह सुरभि बांटता सलोना मनभावन बंशीवाला
    टेर रहा है अमृतसंश्रया मुरली तेरा मुरलीधर।।8।।

    तुम्हें पुकार मधुर वाणी में बार बार मोहन मधुकर
    कर्णपुटों में ढाल रहा है वह आनन्दामृत निर्झर
    कहां गया संबोधनकर्ता विकल प्राण कर अन्वेषण
    टेर रहा है आत्मविग्रहा मुरली तेरा मुरलीधर।।9।।

    रंग रंग की राग रागिनी छेड बांसुरी में मधुकर
    बूंद बूंद में उतर प्रीति का सिंधु बन गया रस निर्झर
    तुम्हें बहुत चाहता तुम्हारा वह प्यारा सच्चा प्रियतम
    टेर रहा सरसारसवंती मुरली तेरा मुरलीधर।।10।।

  • सुलतान

    नृप बनने के बाद जनों ने पूछा यही हसन से बात

    पास न सेना विभव बहुत, कैसे सुलतान हुए तुम तात?

    बोला अरि पर भी उदारता सच्चा स्नेह सुहृद हित प्राप्त

    जन-जन प्रति सदभाव न क्या सुलतान हेतु इतना पर्याप्त।

  • आशा है स्नेह बनाए रखेंगे

    ‘बावरिया बरसाने वाली’ के अभी सैकड़ों छंद यहाँ नहीं आए हैं। इस ब्लॉग की प्रविष्टियों को पढ़कर सम्मानित गजलकार ‘द्विजेन्द्र द्विज जी‘ ने इनमें रूचि दिखाई। बाद में उनकी प्रेरणा से पिता जी की यह काव्य रचना पूर्णतः ‘कविता कोष’ में सम्मिलित करने के लिए स्वीकृत हो गई और अब वहाँ संपूर्णतः उपलब्ध है । अतः अब इस रचना की प्रविष्टियां यहीं रोककर पिताजी की अन्य रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत करूंगा। उनमें कुछ अनुवाद भी हैं जो पिता जी ने संस्कृत,अंग्रेजी आदि भाषा की रचनाओं के किए हैं । गुरुदेव ‘टैगोर’ की ‘गीतांजलि’ के अनुवाद मैं पहले ही अपने चिट्ठे सच्चा शरणम् पर प्रस्तुत कर चुका हूँ। आशा है स्नेह बनाए रखेंगे। सच्चा शरणम पर प्रस्तुत गीतांजलि के अनुवादों की सभी प्रविष्टियाँ यहाँ देखी जा सकती हैं –

    गीतांजलि के काव्यानुवाद

  • बावरिया बरसाने वाली (काव्य): 2

    31.

    सुधि करो प्राण कहते थे तुम क्यों बात–बात में हंसती हो

    किस कलुषित कंचन को मेरे निज हास्य–निकष पर कसती हो

    तुम होड़ लगा प्रिया उपवन की सुरभित कलियाँ चुन लेते थे

    सखियों से होती मदन–रहस–बातें चुपके सुन लेते थे

    सहलाते थे मृदु करतल से रख उर पर मेरे मृदुल चरण

    प्रिय–पाणि–पार्श्व से झुका स्कंध रख देते आनन पर आनन

    धंस डूब मरे हा ! जाय कहाँ बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    32.

    प्रिय ! इस विस्मित नयना को कब आ बाँहों में कस जाओगे

    अपना पीताम्बर उढ़ा प्राण! मेरे दृग में बस जाओगे

    प्रिय! तंडुल-पिंड-तिला वेष्टित सी गाढ़ालिंगन समुहाई

    युग गए काय यह जल पय-सी तव तन में नहीं समा पायी

    हो जहाँ बसे क्या वहाँ प्राण ! कोकिला कभीं बोलती नहीं

    जल गया मदन-तन क्या मंथर, मलयज बयार डोलती नहीं

    सह सकती कैसे विषम बाण बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्रान निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    33.

    मम-अधर दबा करते थे सी-सी ध्वनित सम्पुटक चुम्बन जब

    पृथु उरु उरोज का बढ़ जाता था वसन विहीन विकम्पन तब

    प्रिय! तेरे स्मित कपोल चिबुकाधर कुंद दशन से डंसती थी

    मैं हार हार कर भी चुम्बन की द्युत क्रिया में फंसती थी

    पूछा था मैं तो नित अतृप्त क्या तुम भी प्रिये! तरसती हो?

    निद्रित पलकों में भी आ आ क्यों चपल बालिके बसती हो?

    यह मदन-विनोद-विछोह-विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन की वनमाली

    34.

    सुधि करो अंक ले मुझे कहा था अभीं अभीं चंदा निकला है

    कैसे कहती ढल गयी निशा लाई है उषा वियोग- बाला है

    बोलते कहाँ है अरुणचूड़ किस खग को उड़ते देखा है

    अन्तर में अभीं समानांतर सप्तर्षि गणों की रेखा है

    निकटस्थ सरित का सेतु लाँघ काफिला नहीं कोई निकला

    अरुणिमा क्षितिज में कहाँ तुम्हें क्या दीख पड़ीं कोई चपला

    सुनाती प्रभात की बात न अब बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    35.

    था कहा “शुक्र झांकता न मलिना उडुगण की चटकारी है

    क्या राम- राम कह रहा कहीं देवालय बीच पुजारी है?

    है अभी पूर्ण निस्तब्ध यामिनी वायस के स्वर शांत पड़े

    है कहाँ धेनु-दोहन-शिशु-नर्तन मौन सभी जलजात खड़े?

    मलयानिल झुरक-झुरक सहलाता कहाँ तुम्हारा मृदु आनन्?

    है कहाँ भानु को चढ़ा रहे जल वाटू-तपस्वि-गण देख गगन?

    वह स्थिति न भुलाए भूल रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    36.

    था कहा “पिंजरित कीर मूक है हरित पंख में चंचु छिपा

    विधु-नलिन-नेत्र-मुद्रित-रजनी-मुख रहा चूम तम केश हटा

    क्या तुमने भ्रम से शशि को ही रवि समझा तम-मृग-आखेटी

    वह नभ-सरिता में नहा रही है चंद्रज्योति-पंखिनी बेटी

    देखो तो तेरी गौर कांति से उसका गौरव गया छला

    यह मुझे भुलावे में रखने की किससे सीखी काम-कला?”

    हा! प्रिय कुंकुम-मलिता दलिता बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    37.

    तुमने ही तो था कहा प्राण! “सखि कितना कोमल तेरा तन?

    मोहक मृणाल-किसलय शिरीष-सुमनों का करता मद-मंथन

    बस सुमन-चयन-अभिलाषा से ही होती अमित अरुण अंगुली

    हो जाते पदतल लाल लाल जब कभीं महावर बात चली

    थकती काया स्मृति से ही होगा सुरभित अंगराग-लेपन

    कर गया ग्लानि-प्रस्वेद-ग्रथन कोमल मलमल का झीन वसन

    हा! इस दुलार हित नित विकला बावरिया ने बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    38.

    कहते थे प्राण “अरी, तन्वी! मैं कृष कटि पर हो रही विकल

    कह रही करधनी ठुनक-ठुनक रो रहे समर्थन में पायल

    भय है उरोज-परिवहन पवन से हो न क्षीण त्रिबली-भंजन

    रोमांच पुलक-वलयिता कल्प-विटपिनी लता काया कंचन

    जब किया अलक्तक-रस रंजित हो गये चरण बोझिल-विह्वल्

    कुन्तल-सुगन्ध-भाराभिभूत किसलयी सेज से गयी बिछल”

    प्रिय! इस स्नेहामृत की तृषिता बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    39.

    था कहा सुमन-मेखला-वहन से बढ़ती श्वांस समीर प्रबल

    प्रश्वांस-सुरभि-पंकिल सरोज-मुख आ घेरते भ्रमर चंचल

    प्राणेश्वरि सम्बोधन से ही खिल जाते गाल गुलाबी हैं

    हो जाते तेरे नील जलद से तरलित दृग मायावी हैं

    मधुकर-पक्षापघात-मारुत कर जाता भृकुटि-अधर-स्पंदन

    यह कह-कह रस बरसाने वाले छोड़ गये क्यों मनमोहन

    कब विधु-मुख देखेगी विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    40.

    क्या कहूं आज ही विगत निशा के सपने में आये थे प्रिय!

    तुम करते-करते सुरत प्रार्थना किंचित सकुचाये थे प्रिय!

    मुझमें उड़ेल दी अपने चिर यौवन की अल्हड़ मादकता

    दृग-तट पर दिया उतार हंस, थी पलकों पर गूंथी मुक्ता

    अभिसार-सदन में दीपक की लौ उकसाया हौले-हौले

    इतने भावाभिभूत थे प्रिय फ़िर अधर नहीं तेरे बोले

    उस प्राणेश्वर को ढूंढ़ रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    41.

    निज इन्द्रनीलमणि-सा श्यामल कर में ले उत्तरीय-कोना

    सहला मेरा शरदिन्दु भाल जाने क्या-क्या करते टोना

    था गूंथ रहा नीलाम्बर में चन्द्रमा तारकों की माला

    जाने क्या-क्या तुमने प्रियतम! मेरे कानों में कह डाला

    आवरण-स्रस्त प्रज्ज्वलित अरुण किसलय समान कोमल काया

    मृदु पल्लव-दल-रमणीय-पाणि-तल से तुमने प्रिय! सहलाया

    जल-कढ़ी मीन-सी तड़प रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    42.

    अधरों पर चाहा हास किन्तु लोचन में उमड़ गया पानी

    बहलाने लगी प्रेम की कह प्राचीन कहानी मृदुवाणी

    इतने में ही वाटिका से कही प्रिय! विरही कोकिल कूका

    मैं कह न सकूंगी क्यों निज आनन से मैनें दीपक फ़ूंका

    लज्जित आनन पर अनायास ही श्यामकेशदल घिर आये

    तुम पीत पयोधर बीच विंहसते अपना आसन फ़ैलाये

    प्रिय, अब भी वही तुम्हारी है , बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    43.

    सुधि करो प्राण! कहते गदगद “प्राणेश्वरि, तुम जीवनधन हो

    मुझ पंथ भ्रमित प्रणयी पंथी हित तुम चपला-भूषित घन हो

    तव अंचल की छाया में ही मेरी अभिलाषा सोती है

    तव प्रणय-पयोधि-लहरियां ही मेरा मानस तट धोती हैं

    तव मृदुल वक्ष पर ही मेरे लोचन का ढलता मोती है

    तव कलित-कांति-कानन में ही मेरी चेतनता खोती है

    अब सहा नहीं जाता विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    44.

    सुधि करो प्राण! कहते “मृदुले! तारुण्य न फ़िर फ़िर आता है

    वह धन्य सदा जो झूम झूम कर गीत प्रीति के गाता है

    देखो, वसत के उषा-काल ने दिया शिशिर-परिधान हटा

    मुकुलित रसाल टहनियाँ झूमतीं पुलक अंग में अंग सटा

    देखो प्रेयसि! नभ के नीचे मारुत मकरंद लुटाता है

    उन्मत्त नृत्य करता निर्झर गिरि-शिखरों से कह जाता है

    चिर-तरुण, दर्शनोत्सुका विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    45.

    था कहा “प्रिये! लहरते सुमन ज्यों फ़ेनिल-सरिता बरसाती

    आनन्द-गीत गा रहा भ्रमर कुहुँकती कोकिला मदमाती

    मेरे जीवन की चिर-संगिनि परिणय-पयोधि उफ़नाता है

    आकाश उढ़ौना सुमन बिछौना तृण-दल पद सहलाता है

    आओ हम अपने प्राणों को खग के कलरव में लहरा दें

    द्रुत पियें अमर आसव वासंती मार पताका फ़हरा दें

    तारुण्य-तरल ! है परम विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    46.

    था कहा विहँस “मृगनयनी! मेरा कर हथेलियों में ले लो

    मृगमद से सुरभित करो पयोधर सरसिज कलिका से खेलो

    आओ रसाल-तरु के नीचे आदान-प्रदान करें चुम्बन

    नीरव-निशीथ के परिरंभण में सुनें हृदय का मृदु-स्पंदन

    गाओ गीतों के बिना निशा का स्वागत कब हो पाता है

    आ लिपट जुड़ा लें तप्त प्राण यह वासर ढलता जाता है”

    हो रसिक शिरोमणि! कहाँ विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    47.

    सुधि करो प्राण! कहते थे तुम,”बस प्राणप्रिये! इतना करना

    तेरी स्मृति में विस्मृत जाये संसृति का जीना-मरना

    तेरी पीताभ कुसुम-काया मेरे कर-बंधन में झूले

    तव मलय-पवन-प्रेरित दुकूल लहरा मेरा आनन छू ले

    गूँथना चिकुर में निशिगंधा की नित तटकी अधखिली कली

    तेरी पायल की छूम्-छननन् ध्वनि ढोती फ़िरे हवा पगली”

    खोजती निवेदक को विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    48.

    सुधि करो कहा था,”कभीं निभृत में सजनी! तेरा घूँघट-पट

    निज सिर पर सरका लूँ फ़िर चूमूँ नत-दृग अधर-सुधा लटपट

    छेड़ना करुण पद कुपित कोकिला रात-रात भर सो न सके

    अलकों का गहन तिमिर बिखराना विरह-सवेरा हो न सके

    रूठना पुनः अवगुण्ठन से मनुहार निहार उमड़ पड़ना

    तुम इन्द्रधनुष-सी विनत, अधर झुक मेरे अधरों पर धरना”

    मनुहार-विशारद! आ, विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    49.

    प्रिय! झुका कदम्ब-विटप-शाखा तुम स्थित थे कालिन्दी-तट पर

    विह्वल सुनते थे लहरों का स्नेहिल कल-कल-कल छल-छल स्वर

    टप-टप झरते थे सलिल-बिन्दु थे सरसिज-नयन खुले आधा

    भावाभिभोर हो विलख-विलख कह उठते थे राधा-राधा

    थी मुदित प्रकृति, उत्सवरत थी नीचे वसुन्धरा,ऊपर नभ

    खोये थे जाने कहाँ, पास ही थी मैं खड़ी प्राणवल्लभ

    उद्गार तुम्हारा सुन लिपटी बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    50.

    सुधि करो कहा था, “प्रेम-पर्व पर पंकिल उल्कापात न हो

    जो प्रेयसि-परिरंभण-विहीन वह रात न हो, वह प्रात न हो

    परिमल-प्रसून ले बहे पवन नित ज्योतित करे अवनि हिमकर

    लहरे पयोधि, प्रिय पिये सतत पियूष-प्रवाहित-प्रिया-अधर

    नित धेनु-धूलि वेला में खेलें आँख मिचौनी दिन-रजनी

    भ्रमरों के गुनगुन पर थिरके तितली प्रसून-संगिनी बनी”

    उद्गारक! कहाँ छिपे विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    51.

    क्या नहीं कहा प्रिय! “मंजु-अँगुलियाँ खेलें प्रेयसि-अलकों में

    तारक-चुम्बित सित-तुहिन-बिन्दु झलकें वसुधा की पलकों में

    प्रातः समीर सुन्दरि-कपोल छू रोमांचित कर जाता हो

    सागर निर्झरिणी को धरणी को इन्दु सप्रेम मनाता हो

    सरसिज-संकुल-सर दिशा व्यर्थ जिसमें शुक-पिक-स्वर घात न हो

    देखूं न कभीं गिरि-शिखर जहाँ पर निर्झर-नीर-निपात न हो?”

    आ प्रेम-पुरोहित ढूँढ़ रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    52.

    कहते थे हे प्रिय! “स्खलित-अम्बरा मुग्ध-यौवना की जय हो

    अँगूरी चिबुक प्रशस्त भाल दृग अरूणिम अधर हास्यमय हो

    वह गीत व्यर्थ जिसमें बहती अप्सरालोक की बात न हो

    परिरंभण-पाश-बॅंधी तरूणी का धूमिल मुख जलजात न हो

    कहता हो प्रचुर प्रेम-सन्देशा विद्युत विलसित जलद चपल

    उठता हो केलि-विलास-दीप्त उद्दाम कामना-कोलाहल

    क्या वीतराग हो गये विकल” बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली

    53.

    सुधि करो प्राण! वह भी कैसी मनहरिणी निशा अनूठी थी

    सारी यामिनी विलग तुमसे प्रिय मान किये मैं रूठी थी

    गलदश्रु मनाते रहे चरण-छू छोड़ो सजनी नहीं-नहीं

    तेरा नखशिख श्रृँगार करूँ इस रजनी में कामना यही

    रक्ताभ रंग से रचूँ प्राण ! सित पद-नख में राकेश-कला

    आलता चरण की चूम बजे नूपुर-वीणा घुँघरू-तबला

    दुलराने वाले ! आ विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली 

    54.

    “पिंडलि पर आँकू”, कहा श्याम “लतिका दल में खद्योत लिये

    नव कदलि-खम्भ मृदु पीन-जघन पर पुष्पराग दूँ पोत प्रिये!

    विरॅंचू नितम्ब पर नवल नागरी व्रजवनिता बेचती दही

    पदपृष्ठप्रान्त में अलि-शुक-मैना मीन-कंज-ध्वज-शंख कही्

    फिर बार-बार बाँधू केहरि-कटि पर परिधान नवल धानी

    अन्तर्पट पर रच दूँ लिपटी केशव-कर में राधा रानी”

    हो चतुर चितेरे! कहाँ, विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली

    55.

    था कहा ”पयोधर पर कर मेरे नील-झीन-कञ्चुकी धरें

    बाँधे श्लथ-बन्धन-ग्रंथि सुभग कुच अर्ध छिपे आधे उभरे

    रच दूँ पयोधरों के अन्तर में हरित-कमल-कोमल डंठल

    रक्ताभ चंचु में थाम उसे युग थिरकें बाल मराल धवल

    आवरण-विहीन उदर-त्रिबली में झलके भागीरथी बही

    हीरक-माला में गुँथी मूर्ति हो प्रथम-मिलन-निशि की दुलही“

    ओ मनुहारक! आ जा विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली