Author: Prem Narayan Pankil

  • Love (III): A poem by George Herbert (Poetic Hindi Translation)

    Love (III): A poem by George Herbert (Poetic Hindi Translation)

    ‘Love (III)’ जॉर्ज हर्बर्ट की तीन कविताओं की शृंखला का हिस्सा है, जो प्रेम के स्वभाव पर ध्यान केंद्रित करती हैं।

    Love (I) और Love (II) मुख्य रूप से सांसारिक प्रेम पर ध्यान केंद्रित करती है। Love (I) नश्वर और शाश्वत प्रेम के संबंध को देखती है, जबकि Love (II) दैवीय प्रेम और मानवीय वासना के संबंध पर प्रकाश डालती है।

    लेकिन ‘Love (III)’ पवित्र प्रेम पर ध्यान केंद्रित करती है। यहाँ प्रेम को एक उपासक और ईश्वर के बीच संवाद के रूप में व्यक्त किया गया है। इसमें ईश्वर एक आमंत्रित प्रेमी की तरह दिखाई देते हैं, जो प्रेम की पात्रता को समझाते हैं।

    Love bade me welcome. Yet my soul drew back
    Guilty of dust and sin.
    But quick-eyed Love, observing me grow slack
    From my first entrance in,
    Drew nearer to me, sweetly questioning,
    If I lacked any thing.

    A guest, I answered, worthy to be here:
    Love said, You shall be he.
    I the unkind, ungrateful? Ah my dear,
    I cannot look on thee.
    Love took my hand, and smiling did reply,
    Who made the eyes but I?

    Truth Lord, but I have marred them: let my shame
    Go where it doth deserve.
    And know you not, says Love, who bore the blame?
    My dear, then I will serve.
    You must sit down, says Love, and taste my meat:
    So I did sit and eat.

    मेरे हित मेरे प्राणेश्वर गुंजित था तेरा स्वागत स्वर।
    मेरी अघ रज धूसर अपराधी आत्मा वहाँ न सकी ठहर।

    वह टिक ना सकी लौटी मेरा पहला प्रवेश तेरे सम्मुख
    नत भाल विलज्जित मैं कैसे तुम को दिखला सकता था मुख
    पर बच न सका मैं हे प्रिय मुझ पर तेरी पैनी पड़ी नज़र
    मेरे हित मेरे प्राणेश्वर गुंजित था तेरा स्वागत स्वर।

    इस अघ पंकिल जीवन में प्रियतम जाने तुमने क्या पाया
    अतिशय अपने समीप ही हे प्रिय तुमने मुझको बैठाया
    बोले है कौन कमी जो तुम इस भाँति चुराते रहे नज़र
    मेरे हित मेरे प्राणेश्वर गुंजित था तेरा स्वागत स्वर।

    स्नेहातिरेक मैं तुम मेरा प्रियतम सहलाते रहे माथ
    मैं फूट पड़ा क्या अतिथि सदृश मैं यहाँ हूँ वास के योग्य नाथ
    ऐसा अपनापन मिला कि यह अपराधी भी हो गया मुखर
    मेरे हित मेरे प्राणेश्वर गुंजित था तेरा स्वागत स्वर।

    अकृतज्ञ अमित अविनीत सोचने लगा कौन सी बात कहूँ
    तुमने प्रिय कहा कि तुम भी वही हो जाओगे जो मैं हूँ
    क्यों व्यथित हो रहे हो प्यारे यह घर भी है तेरा ही घर
    मेरे हित मेरे प्राणेश्वर गुंजित था तेरा स्वागत स्वर।

    कातर स्वर विलख उठा तुमसे मैं आँख मिलाने योग्य नहीं
    मम पाणि थाम प्रिय हँस बोले यह आंखें भी मैंने ही दीं
    मेरा स्वर था सच है पर मैंने इनको किया मलिन पत्थर
    मेरे हित मेरे प्राणेश्वर गुंजित था तेरा स्वागत स्वर।

    मैं लजा रहा जा रहा वहीं जो है मेरे लायक प्रियतम
    तुम बोले तुम को पता न मैंने ही झेला सब अघ उपक्रम
    मैं सेवक हूँ तुम यहीं विराजो मेरे प्यारे छोड़ो डर
    मेरे हित मेरे प्राणेश्वर गुंजित था तेरा स्वागत स्वर।

    बैठो बैठो मेरे समीप मैं हूँ जो वह बन जाओ तुम
    घुलमिल हों एक प्राण तन मन बस गीत हमारा गाओ तुम
    मैं पंकिल वहीं विराज गया बज गया प्राण प्रियतम का स्वर
    मेरे हित मेरे प्राणेश्वर गुंजित था तेरा स्वागत स्वर।


    Bonus Post: Hindi Translation of ‘Virtue’, a poem by George Herbert

  • सच्चा लहरी : तीन

    तेरे चारों ओर वही कर रहा भ्रमण है
    खुले द्वार हों तो प्रविष्ट होता तत्क्षण है
    उसकी बदली उमड़ घुमड़ रस बरसाती है
    जन्म-जन्म की रीती झोली भर जाती है॥17॥

    होना हो सो हो, वह चाहे जैसे खेले
    उसका मन, दे सुला गोद में चाहे ले ले
    करो समर्पण कुछ न कभीं भी उससे माँगो
    बस उसके संकल्पों में ही सोओ जागो॥18॥

    वही पाणि पद सिर में वही हृदय धड़कन में
    शोणित में श्वासों में वाणी गमन शयन में
    ’मैं’ हो गया विदा अब मेरा ईश उपस्थित
    उसके महारास में कर दो श्वाँस समर्पित॥19॥

    चाहे कोई भी स्वर हो कोई भी भाषा
    सब उसकी है, उसे पता सबकी परिभाषा
    ’मैं उसका हूँ’ उर में यह अनुभूति बसा लो
    अनुपम इस सच्चा वाणी का मर्म सम्हालो॥20॥

    पुष्पवृन्द परिमल की जैसी गंध कथा है
    किरणों का अरुणोदय से सम्बन्ध यथा है
    तथा अश्रु की भाषा में बोलते नयन हैं
    भाव प्रस्फुटन के आँसू चाक्षुषी वचन हैं॥21॥

    पूर्ण अनिवर्च ईश प्रीति की पीर निराली
    बरबस छलक छलक जाती नयनों की प्याली
    विह्वल उर आह्लाद जन्य उमड़ता रुदन है
    ढुलक गया प्रेमाश्रु पुण्य प्रार्थना सदन है॥22॥

    सब कृतियों में तुम बेहोशी में खोये हो
    सपना सभी अतीत कर्म में तुम सोये हो
    माया सब जो किए जा रहे नादानी में
    जागो व्यर्थ अनर्थ फेंक कूड़ेदानी में॥23॥

    रोको मत बहने दो उसके आगे दृगजल
    पंकिल लोचन जल से धुल होता मन निर्मल
    तड़पन वाले को मनचाहा मिल जाता है
    आँसू से उसका सिंहासन हिल जाता है॥24॥

  • सच्चा लहरी : दो

    सच्चा कहता अरे बावरे! द्वारे द्वारे
    घूम रहा क्यों अपना भिक्षा पात्र पसारे।
    बहुत चकित हूँ, प्रबल महामाया की  माया
    किससे क्या माँगू, सबको भिक्षुक ही पाया॥9॥

    सब धनवान भिखारी हैं, भिक्षुक नरेश हैं
    कहाँ मालकीयत जब तक वासना शेष है।
    माँग बनाती हमें भिखारी यही पहेली
    नृप को भी देखा फैलाये खड़ा हथेली॥10॥

    (more…)

  • सच्चा लहरी : एक

    संत बहुत हैं पर सच्चा अद्भुत फकीर है
    गहन तिमिर में ज्योति किरण की वह लकीर है।
    राका शशि वह मरु प्रदेश की पयस्विनी है
    अति सुहावनी उसके गीतों की अवनी है॥1॥

    सच्चा अद्वितीय अद्भुत है, उसको जी लो
    बौद्धिक व्याख्या में न फँसो, उसको बस पी लो।
    मदिरा उसकी चुस्की ले ले पियो न ऊबो
    उस फकीर की मादकता मस्ती में डूबो॥2॥

    (more…)

  • जियरा जुड़इहैं रे सजनी -एक प्रिय विमुक्ता का उच्छ्वास

    जियरा जुड़इहैं रे सजनी -एक प्रिय विमुक्ता का उच्छ्वास

    पीसत जतवा जिनिगिया सिरइलीं
    दियवा कै दीयै भर रहलैं रे सजनी।
    मिरिगा जतन बिन बगिया उजरलैं
    कागा बसमती ले परइलैं रे सजनी॥

    सेमर चुँगनवाँ सुगन अझुरइलैं
    रुइया अकासे उधिरइलीं रे सजनी।
    साजत सेजियै भइल भिनुसहरा
    निनियाँ सपन होइ गइलीं रे सजनी॥

    अँगना-ओसरिया में डुहुरैं दुलुरुवा
    अन बिन मुँह कुम्हिलइलैं रे सजनी।
    सुधियो ना लिहलैं सजन निरमोहिया
    अखियौ कै लोरवा सुखइलैं रे सजनी॥

    बिरथा तूँ बिलखैलू धनि बउरहिया 
    पिया अँखपुतरी बनइहैं रे सजनी।
    उनहीं की सुधिया में रहु धिया लटपट 
    पंकिल जियरा जुड़इहैं रे सजनी॥ 

  • माझी रे!

    n

    n

    n

    O Majhi Re
    O Majhi Re: Dipankar Das      
    nSource: Flickr

    nमाझी रे! कौने जतन जैहौं पार।
    nजीरन नइया अबुध खेवइया
    nटूट गए पतवार-
    nमाझी रे! कौने जतन जैहौं पार।
    n
    nमाझी रे! ढार न अँसुवन धार।
    nदरियादिल है ऊपर वाला
    nसाहेब खेवनहार! माझी रे!
    nरामजी करीहैं बेड़ापार।
    nमाझी रे! कौने जतन जैहौं पार।
    n (more…)

  • आँखों से मन मत बिगड़े…

    अनासक्त सब सहो जगत के झंझट झगड़े
    n

    nऐसा यत्न करो आँखों से मन मत बिगड़े।

    n

    n

    n

    nमौन साध नासाग्र दृष्टि रख नाम सम्हालो 

    n

    nमन छोटा मत करो काम कल पर मत टालो।

    n

    n

    n

    nउसे पुकारो उसे रात दिन का हिसाब दो 

    n

    nमहापुरुष को सर्व समर्पण की किताब दो।
    n (more…)
  • अखिलं मधुरम् : पंकिल की रचनाएं

    यह ब्लॉग (पंकिल) पिताजी श्री प्रेम नारायण पंकिल की दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं प्रेरक स्वान्तःसुखीन रचनाओं को आप तक पहुँचायेगा। आप एक ऐसी प्रतिभा से मिलेंगे जिसने प्रदर्शन विरहित श्रेष्ठ साहित्य रचा तथा अद्यतन वह क्रम गतिशील है। उस साहित्य के अवगाहन के लिए मैं आपको ‘अखिलं मधुरम्‘ पर आमंत्रित करता हूँ। स्वागत है।

    मैं हिमांशु हूँ। हमेशा हँसना मेरी आदत है, स्वभाव कह लीजिये। आपने मेरा नाम देखा न! हिमांशु, मतलब चन्द्रमा। चन्द्रमा हँसता है सदा मीठी सी हँसी– मधुहास। 

    अपनी कस्बाई जिन्दगी में रोज निखरता है यह चिन्तनशील मन। आँखे मुचमुचाते गौरेया के बच्चे की तरह चहचहाता निकलता हूँ अपने स्व के खोल से। निरखता हूँ संसार, जो दिखता है वह भी और जो नहीं दिखता है उसकी दृश्य चाह भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करने को प्रेरित करती है। इसलिये अपना कुछ भी नहीं पर संसार का ही सब लेकर इतराता हूँ, लिखता जाता हूँ।

    सच्चा शरणम नाम का एक चिट्ठा लिखता हूँ पहले से ही। अभी कुछ और डूबो मन की टेक लेकर। डूबता उतराता हूँ, लिखता जाता हूँ। कवितायें बहुत पहले लिख दी जाती रहीं अनायास इसलिये कभीं इन्हें प्रयत्न नहीं कहा। पर जब चिट्ठाकारी में कुछ भी लिख दो कविता होगी की चेतना व्याप्त देखी तो ऐसा ही नया प्रयत्न करने भी निकल पड़ा, यद्यपि सफल नहीं हुआ। इस ब्लॉग पर लिखी कविताएं बाद में सच्चा शरणम् पर ही प्रकाशित कर दी गईं। संसार को अखिलं मधुरम मान कर मुग्ध होता रहा और उसकी अभिव्यक्ति करती अपने पिता की रचनाधर्मिता से चमत्कृत, इसलिये अखिलं मधुरम में पिता जी की रचनायें देता रहा। अभीं तो आँखें नहीं भरीं।

    उस अदृष्ट और अबूझ  की कारगुजारी सदा समझने की कोशिश करता हूँ, और उससे दोहराता रहता हूँ–

    “एक बार और जाल फेंक रे मछेरे/ जाने किस मछली में बंधन की चाह हो? “

    हिन्दी के साहित्य को आंग्ल भाषा  में परिचित कराने की कोशिश में बन पड़ा एक ब्लॉग Eternal Sharing Literature. सब आपके सामने है। मैं भी, मेरी करनी भी!