संश्लेशित जीवन मधुवन को खंड खंड मत कर मधुकर
मधुप दृष्टि ही सृष्टि तुम्हारी वह मरुभूमि वही निर्झर
तुम्हें निहार रहा स्नेहिल दृग सर्व सर्वगत नट नागर
टेर रहा आनन्दतरंगा मुरली तेरा मुरलीधर।।51।।

साध न कुछ बस साध यही साधना साध्य सच्चा मधुकर
यह सच्ची चेतना उतर बन जाती है जागृति निर्झर
वह है ही बस वह ही तो है अलि यह प्रेम समाधि भली
टेर रहा अमितानुरागिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।52।।

कोटि कला कर भी निज छाया पकड़ न पायेगा मधुकर
सच्चे पद में ही मिट पातीं सब काया छाया निर्झर
फंस संकल्प विकल्पों में क्यों झेल रहा संसृति पीड़ा
टेर रहा है निर्विकल्पिका मुरली तेरा मुरलीधर।।53।।

गिरि श्रृंगों को तोड़ फोड़ कर भूमि गर्भ मंथन मधुकर
सूर्य चन्द्र तक पहुंच चीर कर नभ में मेघ पटल निर्झर
उषा निशा सब दिशाकाल में मतवाला बन ढूँढ़ उसे
टेर रहा है प्राणप्रमथिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।54।।

विषय अनल में जाने कब से दग्ध हो रहा तू मधुकर
कृष्ण प्रेम आनन्द सुधामय परम रम्य शीतल निर्झर
उसे भूल जग मरुथल में सुख चैन खोजने चले कहाँ
टेर रहा शाश्वतसुखाश्रया मुरली तेरा मुरलीधर।।55।।
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