खड़े दर्शनार्थी अपार दरबार सजा उसका मधुकर
उपहारों की राशि चरण पर उसके रही बिछल निर्झर
मुखरित गृह मुँह जोह रहे सब किन्तु न जाने क्यों आकुल
टेर रहा है प्रियाविरहिता मुरली   तेरा    मुरलीधर।।146।।

प्रथम रश्मि की स्मिति में मधुरिम खोल कमल आनन मधुकर
नभ में उड़ते जलद विहंगम के स्वर गीतों में निर्झर
चपल प्रभंजन जलधि तरंगों में कर तेरा नाम स्मरण
टेर रहा  स्वजनानुसंधिनी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।147।।

माँग माँग सच्चे शतदल से रस पीयूष तृषित मधुकर
विजय पराजय हर्ष रुदन से क्षुभित न कर अंतर निर्झर
वह तेरी श्रम सिक्त अलक पर स्नेहिल अंगुलि फिरा फिरा
टेर रहा अमन्दआत्मीया  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।148।।

तम से क्या भय वह तेरे साँवलिया की छाया मधुकर
मरण भीति क्या वह सच्चे प्रियतम की कर शय्या निर्झर
दुख तो उसका तीर्थाटन आनन्द पुलक में प्रकट वही
टेर रहा निर्भयानन्दिनी  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।149।।

वायु प्रकाश सलिल भू अम्बर उसके मधुर छन्द मधुकर
उस विराट के रागाकर्षण का नित सजल स्रोत निर्झर
उस की ही चेतना विश्व का प्रलय सृजन फेनिल पंकिल
टेर रहा है दिगदिगंतिनी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।150।।

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