दुख का मुकुट पहन कर तेरे सम्मुख सुख आता मधुकर
सुख का स्वागत करता तो दुख का भी स्वागत कर निर्झर
सुख न रहा तो दुख भी तेरे साथ नहीं रहने वाला
टेर रहा क्रीड़ाविशारदा  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।121।।

प्रेम भिखारी न उससे कुछ भी माँग कभीं मधुकर
बूँद बूँद अपनी निचोड़ कर अर्पित कर देना निर्झर
उसका रस पी अनरस देंगी स्वयं वस्तुएँ छोड़ तुम्हें
टेर रहा है सुधिपयस्विनी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।122।।

गृह में  रखी स्वर्णमंजूषा देख देख तस्कर मधुकर
सो सकता है कभीं न सुख की नींद स्वर्णलोभी निर्झर
सच्चा प्रेमी कर सकता क्या अपर वस्तु से स्नेह कभीं
टेर रहा है स्वात्महिरण्या मुरली   तेरा    मुरलीधर।।123।।

तू सच्चा स्मृति का शतदल बन पॅंखुरी पॅंखुरी खिल मधुकर
झुण्ड झुण्ड फिर मॅंडरायेंगे लोभी भाव भ्रमर निर्झर
ऊर्ध्वमुखी इन्द्रियाँ परिष्कृत चित्त बना मन कृष्णमना
टेर रहा है मुक्तिहंसिनी  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।124।।

सार्थकता है यही बीज की उससे फूटे तरु मधुकर
तरु सार्थक है जब उस पर झूलें अभिलाष सुमन निर्झर
किन्तु अभीप्सा ही न मचलती रहे उसे फलवती बना
टेर रहा है फलितवल्लरी मुरली   तेरा    मुरलीधर।।125।।

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