भर जाते नख शिख पावस घन विकल बरसने को मधुकर

जितनी प्यासी भू उतने ही प्यासे हैं नीरद निर्झर
तूँ जितना व्याकुल उतना ही व्याकुल है तेरा प्राणेश्वर
टेर रहा उद्वेलितान्तरा  मुरली तेरा  मुरलीधर।।91।।
इतना सुख इतनी सुन्दरता इतनी क्रीड़ायें मधुकर
इतनी अभिलाषायें इतनी रसमय आशायें निर्झर
और कहाँ केवल उसमें ही उसमें रम उसका ही बन
टेर रहा है नेहनिगमना  मुरली तेरा  मुरलीधर।।92।।
उस प्रिय की तज अमृत बिन्दु पी रहा हलाहल क्यों मधुकर
उसके रंग में क्यों न बावरे रंग देता जीवन निर्झर
देख मनोहर शरद चन्द्र सी हॅंसी विषाल विमल लोचन
टेर रहा है छविवारिषा  मुरली  तेरा  मुरलीधर।।93।।
भाव अभाव शुभाशुभ सुख दुख उसके वेणु रंध्र मधुकर
कौन छिद्र कब खोल बजा दे मौन करे किसको निर्झर
उसकी लीला का विलास ही आगत विगत अनागत सब
टेर रहा भवविभवकारिणी मुरली  तेरा  मुरलीधर।।94।।
नेति नेति कह कह श्रुति करती नित जिसका बखान मधुकर
रस पिपासु खोजता चिरंतन वही कृष्ण राधा निर्झर
इन्द्रिय वृन्द गोपिकायें है आत्मा ही  राधारानी
टेर रहा है रासपूर्णिमा  मुरली  तेरा   मुरलीधर।।95।।

———————————————————————-
आपकी टिप्पणी से प्रमुदित रहूँगा । कृपया टिप्पणी करने के लिये प्रविष्टि के शीर्षक पर क्लिक करें । साभार ।
———————————————————————-

अन्य चिट्ठों की प्रविष्टियाँ –
# कानून ताज़ीरात शौहर : भारतेन्दु हरिश्चन्द्र-3……(सच्चा शरणम )