कोना कोना प्रियतम का जाना पहचाना है मधुकर
nइठलाता अटपटा विविध विधि आ दुलरा जाता निर्झर
nशब्द रूप रस स्पर्श गन्ध की मृदुला बाँहों में कस कस
nटेर रहा है अनन्तआस्वादा मुरली तेरा मुरलीधर।।196।।
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nहिला हिला दूर्वादल अंगुलि बुला रहा तुमको मधुकर
nपर्वत पर्वत शिखर शिखर पर टेर रहा सस्वर निर्झर
nचपल जलद पाणि से भेंज भेंज कर संदेशा
nटेर रहा है आनन्दपर्विणी मुरली तेरा मुरलीधर।।197।।
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nविरही तेरे श्याम न आये कैसे जीवित है मधुकर
nतन में ग्रीष्म नयन में पावस भर उर में बसन्त निर्झर
nमुख हेमन्त शरद गण्डस्थल चल रोमावलि शिशिर बना
nटेर रहा है ऋतुरसस्विनी मुरली तेरा मुरलीधर।।198।।
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nउसके अधरों से सीखा सुमनों ने मुस्काना मधुकर
nउसके अधरों से ही सीखा कोकिल ने गाना निर्झर
nछलकाता रहता मयंक उसके अधरों का अमृत
nटेर रहा अधरामृतवर्षिणी मुरली तेरा मुरलीधर।।199।।
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nबॅंध बॅध कर रुक रुक जाता वह लघु में भी विराट मधुकर
nथकते कभीं न उसके गाते अधर मिलन के स्वर निर्झर
nमुँदी पलक में भी वह नटखट आ रच लेता है शय्या
nटेर रहा है स्वजनकंचुकी मुरली तेरा मुरलीधर।।200।।
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nअन्य चिट्ठों की प्रविष्टियाँ –
n# पराजितों का उत्सव : एक आदिम सन्दर्भ – ३ (सच्चा शरणम)
मुरली तेरा मुरलीधर 36
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