भू लुण्ठित हो धूलिस्नात हो जाय न जब तक तन मधुकर।
nवह निज कर में ले दुलराये तेरा लघुप्रसून निर्झर
nविलख भले सुरभित न किन्तु वह पदसेवा से करे न च्युत
nटेर रहा सेवासुखोदग्मा मुरली तेरा मुरलीधर।२३१।
n
nआभूषण क्या प्रिय संगम रोधक प्राचीर नहीं मधुकर
nहो सकती है एकमेव फिर युगल शरीर नहीं निर्झर
nसहज सरल अनलकृंत जीवनगीत बाँसुरी मे भर भर
nटेर रहा है सहजस्पन्दिनी मुरली तेरा मुरलीधर।२३२।
n
nनिज को निज कन्धे बैठाये अज्ञ दुखारी तू मधुकर
nउसे क्यो न सौंपता विहँस जो अखिल भारहारी निर्झर
nतेरी इच्छा का श्वाँसानिल देता दीपक ज्योति बुझा
nटेर रहा अस्तित्वअर्पिता मुरली तेरा मुरलीधर ।२३३।
n
nवहीं प्राणधन का सिंहासन वहीं चरण संस्थित मधुकर
nजहाँ पतिततम महादीनतम अविदित जन संस्थित निर्झर
nओझल किये उसे गहरे मे दंभगर्भिणी मोह निशा
nटेर रहा है दंभतमघ्नी मुरली तेरा मुरलीधर ।२३४।
n
nतब तक भटकेंगे दृग तेरे बहिर्जगतगति में मधुकर
nजब तक बोधा नहीं अतन्द्रित बन्द किये लोचन निर्झर
nआंसू जल मे बह जायेगा पंथ बहिर्गामी पंकिल
nटेर रहा अस्मिताविलीना मुरली तेरा मुरलीधर ।२३५। ————————————————————-
nअन्य चिट्ठों की प्रविष्टियाँ –
n# फागुन मतवारो यह ऐसो परपंच रच्यौ.. (सच्चा शरणम)
मुरली तेरा मुरलीधर – 43
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