इन्द्रिय घट में भक्ति रसायन भर भर चखता रह मधुकर
तन्मय चिन्तन सच्चा रस में देता तुम्हें बोर निर्झर
कर त्रिकाल उस महाकाल के चरणामृत का आस्वादन
टेर रहा नैवेद्यतुलसिका मुरली   तेरा    मुरलीधर।।111।।

मन तो नित गिरता रहता है सलिल सदृश नीचे मधुकर
कृष्ण स्मरण का यंत्र उसे ले उर्ध्व बना देता निर्झर
सब संयोग वियोग जगत का हरि स्मृति में न वियोग कभीं
टेर रहा संयोगसंधिनी  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।112।।
मिली वासना से ही काया इसे  स्मरण रखना मधुकर
फिर जैसी वासना तुम्हारी वैसा होगा तन निर्झर
बनना नहीं जनक जननी अब नहीं किसी की त्रिया तनय
टेर रहा वैराग्यदीपिका  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।113।।

इस मल मूत्रभरित तन में मत प्रेम बाँटता फिर मधुकर
प्रेम पात्र बस सच्चा प्रियतम संसृति में न भटक निर्झर
भुक्ता भोग्य सभी मिट जाते रस ही रस वह प्राणेश्वर
टेर रहा है रसकदम्बिनी  मुरली   तेरा    मुरलीधर।।114।।

नहीं काष्ठगत अप्रकट पावक ऊष्मा देता है मधुकर
भीतर की प्रकटिता अग्नि जब तब होती दाहक निर्झर
बाहर भीतर के नारायण को कर एकाकार स्वरित
टेर रहा सारूप्यसुन्दरी   मुरली   तेरा    मुरलीधर।।115।।

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