बैठो मेरे पास

साहित्य का एक बड़ा ही मर्मस्पर्शी और सर्वग्राही अर्थ है ‘सहित होना’, साथ होना – to be with. What to be with?- to be with ‘joy’– आनंद। आनंद के साथ रहना साहित्य का आलिंगित अर्थ है, अभिवांछित अर्थ है। बाकी सब साहित्य की इस सार्थक अर्थवत्ता के आनुषांगिक अर्थ हैं। इसीलिये साहित्य को मनीषियों ने ‘ब्रह्मानन्दसहोदर’ कहा है। पिताजी ने सदा साहित्य का यही आंचल पकड़ा है और इसे व्यवसाय और प्रदर्शन से अब तक दूर ही रखा है।

साहित्य के विविध आयामों में आप ने काव्य की धारा को आत्मसात किया है। संस्कृत के लक्षण ग्रंथों तथा हिन्दी के मध्य युगीन एवं विज्ञ अर्वाचीन कवियों ने भी राधा कृष्ण को उपजीव्य बना कर हृदयस्पर्शी रचनाओं से साहित्य की गोद भरी है। जानकी वल्लभ शास्त्री की राधा, धर्मवीर भारती की कनुप्रिया, हरिऔध का प्रियप्रवास, गुप्त जी की विरहिणी ब्रजांगना आदि रचनाएँ कभीं कल कवलित नहीं हो सकतीं। सत्य तो यह है कि पिताजी ने यह सर्वमान्य सत्य उद्घोषित किया है–

सुन्दरता सरसता सभी की स्रोत मात्र गोविन्द प्रिया
टेर रहा वृन्दावनेश्वरी मुरली तेरा मुरलीधर॥

प्रोषितपतिका नायिका, विमुग्धा नायिका, अभिसारिका आदि के अनेकों अद्भुत मनमोहक बिम्ब साहित्य में समलंकृत हैं किंतु करुण रस का परिपाक स्मृतियों के झरोखे से जितना गोपीवल्लभ कृष्ण के लिए हुआ है उसका स्पर्श अन्य किसी रस में नहीं देखा गया है। क्या सूर की भ्रमरगीत की रचना का कोई सानी है?

सम्प्रति मैं पिताजी की एक लघुकाय कृति ‘बावरिया बरसाने वाली’ के छंदों को क्रमशः अवगाहनार्थ प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसमें कालिदास के मेघदूत का विरही यक्ष स्पंदित दिखायी दे रहा है। अन्तर इतना ही है कि यक्ष ने मेघ से संदेशवाहक का कार्य लेकर अपनी स्मृतियों एवं निर्देशों का संप्रेषण किया, वहीं इस सरस करुण काव्य में स्मृतियों का संप्रेषण नहीं आलोड़न है। राधा श्रीकृष्ण के संग व्यतीत की हुई घड़ियों का मानस पटल पर अनुरंजन करती हैं और उस स्मृति के झूले पर झूलती हुई उद्वेलित, आंदोलित,उद्भ्रांत,आकर्षित, पुलकित और परिव्यथित होती हैं। स्मृतियाँ कृष्ण को बुलाने के लिए हैं, कृष्ण को उलझाने के लिए नहीं। राधा की यह आत्मरति अपने आप में साहित्य की अमर धरोहर बनेगी, इस आशा के साथ मैंने अपने ब्लॉग में इस श्रृंखला को संयुक्त किया है। आगे इसी क्रम अन्यान्य रचनाएँ भी सुधी पाठकों के अनुशीलनार्थ, पिताजी की लेखनी से निःसृत कृतियों के समीक्षार्थ प्रेषित करता रहूँगा। संभवतः उनके साहित्यिक सांस्कृतिक ऋण का परिहार कर सकूं।

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