Category: बावरिया बरसाने वाली

  • बावरिया बरसाने वाली (काव्य): 2

    31.

    सुधि करो प्राण कहते थे तुम क्यों बात–बात में हंसती हो

    किस कलुषित कंचन को मेरे निज हास्य–निकष पर कसती हो

    तुम होड़ लगा प्रिया उपवन की सुरभित कलियाँ चुन लेते थे

    सखियों से होती मदन–रहस–बातें चुपके सुन लेते थे

    सहलाते थे मृदु करतल से रख उर पर मेरे मृदुल चरण

    प्रिय–पाणि–पार्श्व से झुका स्कंध रख देते आनन पर आनन

    धंस डूब मरे हा ! जाय कहाँ बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    32.

    प्रिय ! इस विस्मित नयना को कब आ बाँहों में कस जाओगे

    अपना पीताम्बर उढ़ा प्राण! मेरे दृग में बस जाओगे

    प्रिय! तंडुल-पिंड-तिला वेष्टित सी गाढ़ालिंगन समुहाई

    युग गए काय यह जल पय-सी तव तन में नहीं समा पायी

    हो जहाँ बसे क्या वहाँ प्राण ! कोकिला कभीं बोलती नहीं

    जल गया मदन-तन क्या मंथर, मलयज बयार डोलती नहीं

    सह सकती कैसे विषम बाण बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्रान निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    33.

    मम-अधर दबा करते थे सी-सी ध्वनित सम्पुटक चुम्बन जब

    पृथु उरु उरोज का बढ़ जाता था वसन विहीन विकम्पन तब

    प्रिय! तेरे स्मित कपोल चिबुकाधर कुंद दशन से डंसती थी

    मैं हार हार कर भी चुम्बन की द्युत क्रिया में फंसती थी

    पूछा था मैं तो नित अतृप्त क्या तुम भी प्रिये! तरसती हो?

    निद्रित पलकों में भी आ आ क्यों चपल बालिके बसती हो?

    यह मदन-विनोद-विछोह-विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन की वनमाली

    34.

    सुधि करो अंक ले मुझे कहा था अभीं अभीं चंदा निकला है

    कैसे कहती ढल गयी निशा लाई है उषा वियोग- बाला है

    बोलते कहाँ है अरुणचूड़ किस खग को उड़ते देखा है

    अन्तर में अभीं समानांतर सप्तर्षि गणों की रेखा है

    निकटस्थ सरित का सेतु लाँघ काफिला नहीं कोई निकला

    अरुणिमा क्षितिज में कहाँ तुम्हें क्या दीख पड़ीं कोई चपला

    सुनाती प्रभात की बात न अब बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    35.

    था कहा “शुक्र झांकता न मलिना उडुगण की चटकारी है

    क्या राम- राम कह रहा कहीं देवालय बीच पुजारी है?

    है अभी पूर्ण निस्तब्ध यामिनी वायस के स्वर शांत पड़े

    है कहाँ धेनु-दोहन-शिशु-नर्तन मौन सभी जलजात खड़े?

    मलयानिल झुरक-झुरक सहलाता कहाँ तुम्हारा मृदु आनन्?

    है कहाँ भानु को चढ़ा रहे जल वाटू-तपस्वि-गण देख गगन?

    वह स्थिति न भुलाए भूल रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    36.

    था कहा “पिंजरित कीर मूक है हरित पंख में चंचु छिपा

    विधु-नलिन-नेत्र-मुद्रित-रजनी-मुख रहा चूम तम केश हटा

    क्या तुमने भ्रम से शशि को ही रवि समझा तम-मृग-आखेटी

    वह नभ-सरिता में नहा रही है चंद्रज्योति-पंखिनी बेटी

    देखो तो तेरी गौर कांति से उसका गौरव गया छला

    यह मुझे भुलावे में रखने की किससे सीखी काम-कला?”

    हा! प्रिय कुंकुम-मलिता दलिता बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    37.

    तुमने ही तो था कहा प्राण! “सखि कितना कोमल तेरा तन?

    मोहक मृणाल-किसलय शिरीष-सुमनों का करता मद-मंथन

    बस सुमन-चयन-अभिलाषा से ही होती अमित अरुण अंगुली

    हो जाते पदतल लाल लाल जब कभीं महावर बात चली

    थकती काया स्मृति से ही होगा सुरभित अंगराग-लेपन

    कर गया ग्लानि-प्रस्वेद-ग्रथन कोमल मलमल का झीन वसन

    हा! इस दुलार हित नित विकला बावरिया ने बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    38.

    कहते थे प्राण “अरी, तन्वी! मैं कृष कटि पर हो रही विकल

    कह रही करधनी ठुनक-ठुनक रो रहे समर्थन में पायल

    भय है उरोज-परिवहन पवन से हो न क्षीण त्रिबली-भंजन

    रोमांच पुलक-वलयिता कल्प-विटपिनी लता काया कंचन

    जब किया अलक्तक-रस रंजित हो गये चरण बोझिल-विह्वल्

    कुन्तल-सुगन्ध-भाराभिभूत किसलयी सेज से गयी बिछल”

    प्रिय! इस स्नेहामृत की तृषिता बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    39.

    था कहा सुमन-मेखला-वहन से बढ़ती श्वांस समीर प्रबल

    प्रश्वांस-सुरभि-पंकिल सरोज-मुख आ घेरते भ्रमर चंचल

    प्राणेश्वरि सम्बोधन से ही खिल जाते गाल गुलाबी हैं

    हो जाते तेरे नील जलद से तरलित दृग मायावी हैं

    मधुकर-पक्षापघात-मारुत कर जाता भृकुटि-अधर-स्पंदन

    यह कह-कह रस बरसाने वाले छोड़ गये क्यों मनमोहन

    कब विधु-मुख देखेगी विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    40.

    क्या कहूं आज ही विगत निशा के सपने में आये थे प्रिय!

    तुम करते-करते सुरत प्रार्थना किंचित सकुचाये थे प्रिय!

    मुझमें उड़ेल दी अपने चिर यौवन की अल्हड़ मादकता

    दृग-तट पर दिया उतार हंस, थी पलकों पर गूंथी मुक्ता

    अभिसार-सदन में दीपक की लौ उकसाया हौले-हौले

    इतने भावाभिभूत थे प्रिय फ़िर अधर नहीं तेरे बोले

    उस प्राणेश्वर को ढूंढ़ रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    41.

    निज इन्द्रनीलमणि-सा श्यामल कर में ले उत्तरीय-कोना

    सहला मेरा शरदिन्दु भाल जाने क्या-क्या करते टोना

    था गूंथ रहा नीलाम्बर में चन्द्रमा तारकों की माला

    जाने क्या-क्या तुमने प्रियतम! मेरे कानों में कह डाला

    आवरण-स्रस्त प्रज्ज्वलित अरुण किसलय समान कोमल काया

    मृदु पल्लव-दल-रमणीय-पाणि-तल से तुमने प्रिय! सहलाया

    जल-कढ़ी मीन-सी तड़प रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    42.

    अधरों पर चाहा हास किन्तु लोचन में उमड़ गया पानी

    बहलाने लगी प्रेम की कह प्राचीन कहानी मृदुवाणी

    इतने में ही वाटिका से कही प्रिय! विरही कोकिल कूका

    मैं कह न सकूंगी क्यों निज आनन से मैनें दीपक फ़ूंका

    लज्जित आनन पर अनायास ही श्यामकेशदल घिर आये

    तुम पीत पयोधर बीच विंहसते अपना आसन फ़ैलाये

    प्रिय, अब भी वही तुम्हारी है , बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    43.

    सुधि करो प्राण! कहते गदगद “प्राणेश्वरि, तुम जीवनधन हो

    मुझ पंथ भ्रमित प्रणयी पंथी हित तुम चपला-भूषित घन हो

    तव अंचल की छाया में ही मेरी अभिलाषा सोती है

    तव प्रणय-पयोधि-लहरियां ही मेरा मानस तट धोती हैं

    तव मृदुल वक्ष पर ही मेरे लोचन का ढलता मोती है

    तव कलित-कांति-कानन में ही मेरी चेतनता खोती है

    अब सहा नहीं जाता विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    44.

    सुधि करो प्राण! कहते “मृदुले! तारुण्य न फ़िर फ़िर आता है

    वह धन्य सदा जो झूम झूम कर गीत प्रीति के गाता है

    देखो, वसत के उषा-काल ने दिया शिशिर-परिधान हटा

    मुकुलित रसाल टहनियाँ झूमतीं पुलक अंग में अंग सटा

    देखो प्रेयसि! नभ के नीचे मारुत मकरंद लुटाता है

    उन्मत्त नृत्य करता निर्झर गिरि-शिखरों से कह जाता है

    चिर-तरुण, दर्शनोत्सुका विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    45.

    था कहा “प्रिये! लहरते सुमन ज्यों फ़ेनिल-सरिता बरसाती

    आनन्द-गीत गा रहा भ्रमर कुहुँकती कोकिला मदमाती

    मेरे जीवन की चिर-संगिनि परिणय-पयोधि उफ़नाता है

    आकाश उढ़ौना सुमन बिछौना तृण-दल पद सहलाता है

    आओ हम अपने प्राणों को खग के कलरव में लहरा दें

    द्रुत पियें अमर आसव वासंती मार पताका फ़हरा दें

    तारुण्य-तरल ! है परम विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    46.

    था कहा विहँस “मृगनयनी! मेरा कर हथेलियों में ले लो

    मृगमद से सुरभित करो पयोधर सरसिज कलिका से खेलो

    आओ रसाल-तरु के नीचे आदान-प्रदान करें चुम्बन

    नीरव-निशीथ के परिरंभण में सुनें हृदय का मृदु-स्पंदन

    गाओ गीतों के बिना निशा का स्वागत कब हो पाता है

    आ लिपट जुड़ा लें तप्त प्राण यह वासर ढलता जाता है”

    हो रसिक शिरोमणि! कहाँ विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    47.

    सुधि करो प्राण! कहते थे तुम,”बस प्राणप्रिये! इतना करना

    तेरी स्मृति में विस्मृत जाये संसृति का जीना-मरना

    तेरी पीताभ कुसुम-काया मेरे कर-बंधन में झूले

    तव मलय-पवन-प्रेरित दुकूल लहरा मेरा आनन छू ले

    गूँथना चिकुर में निशिगंधा की नित तटकी अधखिली कली

    तेरी पायल की छूम्-छननन् ध्वनि ढोती फ़िरे हवा पगली”

    खोजती निवेदक को विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    48.

    सुधि करो कहा था,”कभीं निभृत में सजनी! तेरा घूँघट-पट

    निज सिर पर सरका लूँ फ़िर चूमूँ नत-दृग अधर-सुधा लटपट

    छेड़ना करुण पद कुपित कोकिला रात-रात भर सो न सके

    अलकों का गहन तिमिर बिखराना विरह-सवेरा हो न सके

    रूठना पुनः अवगुण्ठन से मनुहार निहार उमड़ पड़ना

    तुम इन्द्रधनुष-सी विनत, अधर झुक मेरे अधरों पर धरना”

    मनुहार-विशारद! आ, विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    49.

    प्रिय! झुका कदम्ब-विटप-शाखा तुम स्थित थे कालिन्दी-तट पर

    विह्वल सुनते थे लहरों का स्नेहिल कल-कल-कल छल-छल स्वर

    टप-टप झरते थे सलिल-बिन्दु थे सरसिज-नयन खुले आधा

    भावाभिभोर हो विलख-विलख कह उठते थे राधा-राधा

    थी मुदित प्रकृति, उत्सवरत थी नीचे वसुन्धरा,ऊपर नभ

    खोये थे जाने कहाँ, पास ही थी मैं खड़ी प्राणवल्लभ

    उद्गार तुम्हारा सुन लिपटी बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    50.

    सुधि करो कहा था, “प्रेम-पर्व पर पंकिल उल्कापात न हो

    जो प्रेयसि-परिरंभण-विहीन वह रात न हो, वह प्रात न हो

    परिमल-प्रसून ले बहे पवन नित ज्योतित करे अवनि हिमकर

    लहरे पयोधि, प्रिय पिये सतत पियूष-प्रवाहित-प्रिया-अधर

    नित धेनु-धूलि वेला में खेलें आँख मिचौनी दिन-रजनी

    भ्रमरों के गुनगुन पर थिरके तितली प्रसून-संगिनी बनी”

    उद्गारक! कहाँ छिपे विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    51.

    क्या नहीं कहा प्रिय! “मंजु-अँगुलियाँ खेलें प्रेयसि-अलकों में

    तारक-चुम्बित सित-तुहिन-बिन्दु झलकें वसुधा की पलकों में

    प्रातः समीर सुन्दरि-कपोल छू रोमांचित कर जाता हो

    सागर निर्झरिणी को धरणी को इन्दु सप्रेम मनाता हो

    सरसिज-संकुल-सर दिशा व्यर्थ जिसमें शुक-पिक-स्वर घात न हो

    देखूं न कभीं गिरि-शिखर जहाँ पर निर्झर-नीर-निपात न हो?”

    आ प्रेम-पुरोहित ढूँढ़ रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    52.

    कहते थे हे प्रिय! “स्खलित-अम्बरा मुग्ध-यौवना की जय हो

    अँगूरी चिबुक प्रशस्त भाल दृग अरूणिम अधर हास्यमय हो

    वह गीत व्यर्थ जिसमें बहती अप्सरालोक की बात न हो

    परिरंभण-पाश-बॅंधी तरूणी का धूमिल मुख जलजात न हो

    कहता हो प्रचुर प्रेम-सन्देशा विद्युत विलसित जलद चपल

    उठता हो केलि-विलास-दीप्त उद्दाम कामना-कोलाहल

    क्या वीतराग हो गये विकल” बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली

    53.

    सुधि करो प्राण! वह भी कैसी मनहरिणी निशा अनूठी थी

    सारी यामिनी विलग तुमसे प्रिय मान किये मैं रूठी थी

    गलदश्रु मनाते रहे चरण-छू छोड़ो सजनी नहीं-नहीं

    तेरा नखशिख श्रृँगार करूँ इस रजनी में कामना यही

    रक्ताभ रंग से रचूँ प्राण ! सित पद-नख में राकेश-कला

    आलता चरण की चूम बजे नूपुर-वीणा घुँघरू-तबला

    दुलराने वाले ! आ विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली 

    54.

    “पिंडलि पर आँकू”, कहा श्याम “लतिका दल में खद्योत लिये

    नव कदलि-खम्भ मृदु पीन-जघन पर पुष्पराग दूँ पोत प्रिये!

    विरॅंचू नितम्ब पर नवल नागरी व्रजवनिता बेचती दही

    पदपृष्ठप्रान्त में अलि-शुक-मैना मीन-कंज-ध्वज-शंख कही्

    फिर बार-बार बाँधू केहरि-कटि पर परिधान नवल धानी

    अन्तर्पट पर रच दूँ लिपटी केशव-कर में राधा रानी”

    हो चतुर चितेरे! कहाँ, विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली

    55.

    था कहा ”पयोधर पर कर मेरे नील-झीन-कञ्चुकी धरें

    बाँधे श्लथ-बन्धन-ग्रंथि सुभग कुच अर्ध छिपे आधे उभरे

    रच दूँ पयोधरों के अन्तर में हरित-कमल-कोमल डंठल

    रक्ताभ चंचु में थाम उसे युग थिरकें बाल मराल धवल

    आवरण-विहीन उदर-त्रिबली में झलके भागीरथी बही

    हीरक-माला में गुँथी मूर्ति हो प्रथम-मिलन-निशि की दुलही“

    ओ मनुहारक! आ जा विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली

  • बावरिया बरसाने वाली (काव्य): 1

    1.

    व्रजमंडल नभ में उमड़-घुमड़ घिर आए आषाढ़ी बादल

    उग गया पुरंदर धनुष ध्वनित उड़ चले विहंगम दल के दल

    उन्मत्त मयूरी उठी थिरक श्यामली निरख नीरद माला

    कर पर कपोल रखा निभृत कुञ्ज में अश्रु बहाती ब्रजबाला

    मृदु कीर गर्भ पांडुर कपोल पर बिखर गयी कज्जल रेखा

    विरहिणी राधिका उठी चीख जब जलद कृष्णवर्णी देखा

    घनश्याम पधारो बिलख रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    2.

    थे नाप रहे नभ ओर-छोर चढ़ धारधार पर धाराधर

    दामिनी दमक जाती क्षण-क्षण श्यामलीघटाओं से सत्वर

    कल-कल छल-छल जलरव मुखरित था यमुना-पुलिन मनोहारी

    तन से अठखेली कर बरबस खींचता प्रभंजन था सारी

    परिरंभण में बांधे विटपों को थीं वल्लरी बिना बाधा

    अंचल पसार कर लगी बिलखने आ जा राधा के कांधा

    व्रजचंद्र! पधारो बिलख रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    3.

    पी कहाँ पी कहाँ रटे जा रहा था पपीहरा उत्पाती

    घन गरज–गरज इंगित करते लाये मनमोहन पाती

    मल्लिका मंजू पर मचल रहे श्यामल मिलिंद मतवारे थे

    नवकमल दण्ड मृदु दबा चंच में उड़े हंस सित प्यारे थे

    थी बिछड़ गयी लावण्यमयी श्री राधा–माधव की जोरी

    कर पल्लव जोड़ पुकार उठी वृषभान किशोरी अतिभोरी

    “क्यों भूल गए प्राणेश! विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    4.

    भर रही अंग में थी अनंग–मद सिहर लहर पुरवईया की

    लगता कदम्ब की डाल–डाल पर मुरली बजी कन्हैया की

    घन की बूँदों ने भिंगो दिया कीर्तिदा कुमारी की काया

    प्रिय संग घटी वृन्दावन की सुधियों का ज्वर उमड़ आया

    केकी–नर्तन था इधर, उधर थिरकती जलद में थी चपला

    नभ अवनि–बीच घी धूम रहे चुप कैसे, चीख उठी अबला

    “हो ललित त्रिभंग! कहाँ विकला बावरिया बरसाने वाली

    प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    5.

    सिक्ता कर रही सुरंग चूनरी ऋतु पावसी निगोड़ी थी

    स्मृति कौंध गयी कैसे मोहन से मचती होड़ा–होड़ी थी

    किस विधि भींगा था पाग उपरना हार गए थे बनवारी

    सिर नवा खड़े थे हरी ताली दे दे हंसती थी व्रजनारी

    थे नवल किशोर कुञ्ज में स्थित दे कोमल कर में करमाला

    शत–शत लीला तरंग स्मृति में बह गयी विरहिणी व्रजबाला

    “रसिकेश्वर!बात निहार रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    6.

    बोली “सुधि करो प्राण !कहते थे हमने देखा है सपना

    वह मधुबेला भूलती नहीं भूलता न अधरों का कंपना

    देखा था अनाघ्रात कलिका सी किए जलज लोचन नीचे

    थी खड़ी वल्लभा वदन इंदु पर नील झीन अंचल खींचे

    मृदु दर्पणाभ कोमल कपोल की हुई असित अरुणाई थी

    नव कुबलय–दल–पड़–नख से रचती भू पर निज परछाईं थी

    सपने में अपना किया वही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    7.

    कहते “तव अरुण राग पद से भू अम्बर छपना देखा था

    झलकते नलिन लोचन दल से दृग सलिल टपकना देखा था

    निज भुज प्रलंब से मसृण कलेवर थाम अंक में खींचा था

    मधु अधर–पुटों पर ‘पंकिल‘ उर का प्रणय–पयोधि उलीचा था

    था प्राण! दलित–द्युति किसलय–वपु निकलती उष्ण थी दीर्घ श्वांस

    और–और खींचते गए प्राणेश्वर ! मुझको और पास

    विस्मृत कैसे हो गयी हाय बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    8.

    था कहा “अधर-रस-सुधा पिला” तन्वंगी ने तब था पूछा

    क्या नाथ प्रणय प्रांगण का कलरव फिर हो जाएगा छूछा

    घट रिक्त त्याग कर क्या हम फिर ले लेंगे मग अपना-अपना

    वह फूट-फूट बिलखने लगी छीनो निज नाम न प्रिय अपना

    दे गयी निगोड़ी दगा नींद तब अरुणशिखा ध्वनी थी गूँजी

    श्यामल ने कहा जगा ही क्यों रोती होगी मेरी पूंजी”

    रख झूल गयी ग्रीवा में कर बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    9.

    सुधि करो कहा था तुमने ही “चाहता नहीं कुछ और प्रिये!

    तुम रहो तुम्हारा बंधन हो जग को दुलारता इसीलिये

    नीलाभ गगन पीताभ सुमन विहँसती पूर्णिमा राका हो

    पावस घन से अभिसार हेतु उड़ती नभ बीच बलाका हो

    तुम अंकमालिका बनी निहारो कुटिल अलक स्वच्छंद किए

    हमको इतना ही वांछित है जो जैसे चाहे जिए-जिए”

    है वही पसारे पलक खड़ी बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    10.

    था कहा “धूसरित ग्रीष्म गगन या सरस बरसता पावस हो

    चांदनी चैत की हो डहकी या हेमंतिनी अमावस हो

    प्रति दिवस जलज जयमाल लिए मैं सुमुखि करूंगा अभिनन्दन

    दृग ओट न होना निःसृत होगा हा राधा-राधा क्रंदन

    कल-कंज विलोचन मदिर अधर की प्राण लुटाना मधुशाला

    मेरे जीवन की श्वांस-श्वांस हो तुम्ही सहचरी ब्रजबाला”

    गोविन्द हुई विस्मृत कैसे बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    11.

    तुम मसृण पाणि मम पड़ सहला सो गए प्राण ले मधु सपना

    जब कहा “विदा बेला प्रियतम कर लूँ सम श्लथ दुकूल अपना”

    कुछ कर्ण-कुहर में कह विहँसे तुम विधु-किरणोपम तिलक दिए

    प्रिया परिरम्भण में उठे खनक छूम-छननन नूपुर दुभाषिये

    पूछ “सखियाँ पूछेंगी ही स्वामिनि कैसे बीती रजनी?”

    बोले “दर्पण में निज कपोल चूमना ललक शतधा सजनी”

    है वही कृष्ण-वारुणी पिए बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    12.

    सुधि करो प्राण पूछा तुमने “क्यों मौन खड़ी ब्रजबाला हो?

    स्मित मधुर हास्य की मृदुल रश्मि से करती व्योम उजाला हो

    तुम वारी-वीचि की सरसिज कलिका सी लेती अँगडाई हो

    हो मरालिनी मानस सर की ऋतुराज सदृश गदराई हो

    क्यों मौन आँसुओं की भाषा सी दिए अधर पर ताला हो?

    प्रिय मदिर नयन बंधूकअधर की ढरकाती मधुशाला हो”

    बस अपलक तुम्हें रही तकती बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    13.

    कहते थे “मौन उषा गवाक्ष से प्राण! झांकता सविता हो

    परिरंभण-व्याकुल युगल बाहु की अथवा तन्मय कविता हो

    हो बिम्बाधर अरुणाभ पाणिपद नवल नीरधर अभिरामा

    ओ नवल नील परिधान मंडिता सित दशना कुंतल श्यामा

    री नव अषाढ़ की सजल घटा सी श्यामल कुंतल बिखराये

    अति चपल करों से चंचल अंचल अम्बर उर पर सरकाए

    अब पलक उठा पूछे किससे क्या बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    14.

    सहला कपोल बोले, “मुख-छवि ज्यों मुदित पूर्णिमा हो रजनी

    मधु श्वांस-सुरभि-प्रेरित अलि अवली कहती है बोलो सजनी

    मेरे ‘पंकिल’ उर-कानन की कुसुमित तरुणी अभिलाषा हो

    सखि! मुझसे व्यथित तृषित चातक की स्वाती-सलिल-पिपासा हो

    नित तुम्हें दृगों में लिये भ्रमित मैं बन बसंत मतवाला हूँ

    हे सुमुखि! तुम्हारे पद-तल में बिछ गयी सुमन की माला हूँ”

    बदली न, वही तेरी अब भी बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    15.

    सुधि करो प्राण पूछा तुमने “वह पीर प्रिये क्या होती है

    जिसकी असीम वेदना विकल हो निशा निरंतर रोती है

    आया न अभी ऋतुराज तभीं होती उजाड़ क्यों वनस्थली

    क्यों नंदनवन का प्रिय-परिमल बांटता प्रभंजन गली-गली?

    स्वप्निल निशि में क्यों चीख-चीख उठती न कोकिला सोती है?

    निष्कंप दीप लौ पर पतंग बालिका कलेवर धोती है”

    बस टुकटुक मुख देखती रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    16.

    सुधि करो प्राण थी अंकगता किसलय काया अधखुले नयन

    श्लथ श्वांस सुरभि संघात जन्य थे काँप-काँप जाते पृथु स्तन

    छू मद-घूर्णित मेरे कपोल सिहरती रही कुंदन बाली

    तुम मृदु करतल से सहलाते थे मेरी अलकें घुंघुराली

    “जग में सर्वोत्तम कौन प्रिया?” पूछा था तुमने वनमाली

    तब बाहुलता में बाँध तुम्हें मैं विहंस उठी कह “पंचाली”

    फिर भाव विलीन हुई तुममें बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    17.

    भूलते न क्षण प्रियतम इंगित से तुमने मुझे बुलाया था

    प्राणेश्वरि! मत छोड़ना मुझे यह कहकर बहुत रुलाया था

    सुधि करो प्राण! रस-रंजित निशि में अवगुंठन-पट खींचा था

    मृदु मदिर अधर पर ‘पंकिल’-उर का प्रणय-पयोधि उलीचा था

    पूछा” भाती न उषा, संध्या पर क्यों बलिहारी होती हो?

    नीरव निशीथ में मधु शैय्या पर श्रद्धा-सुमन संजोती हो?”

    क्या कहे विराट प्राण! बौनी बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    18.

    सुधि करो कहा “क्यों स्नेह-सलिल संकुल तेरे कुवलय लोचन

    क्यों गाढ़ प्रणय-परिरम्भण में होता वपु-प्रसरण-संकोचन

    कोमल कुंतल के असित अंक में गूंथे तुमने विविध सुमन

    उमड़ता रहा रसमय परिरम्भित उरज-संपुटित हृद-स्पंदन”

    जुड़ गए परस्पर अनायास हे प्रियतम! अरुण अधर पल्लव

    प्राणेश हुए मेरे तन के रोमांचित सिंदूरी अवयव

    उस क्षण की भिखमंगिनी बनी बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    19.

    पूछा “क्यों उर्मिल उदधि चंद्रकर झूम झूम चूमता सदा?

    निज अंतरालगत सलिल सम्पदा दिनमणि को बांटता मुदा?

    किस विकल वेदना में चकोर चुगता पावक का अंगारा?

    क्यों सोम-सूर्य करते फेरी अपलक निहारता ध्रुव तारा?

    क्यों नीरव नभ से निशा सुन्दरी धर्काती दृग मोती है?

    किस सुख में ‘पंकिल’ धरा ह्रदय संपुटित संपदा खोती है?”

    रो रही निरुत्तर वही व्यथित बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    20.

    पूछा था ” क्यों अन्तक करस्थ सायक सहलाता मृगछौना?

    क्यों नभ चुम्बन हित ललक लहराता भूतलस्थ पादप बौना?

    लौटेंगे प्रिय न प्रतीति विपुल बीतीं बसंत की मधु राका

    फिर भी विराहज स्पंदन न स्तब्ध क्यों प्रोषित पतिका प्रमदा का?

    क्यों सलिल राशिः भैरव निनाद लोटता अवनि पर धुन माथा?

    पावस घन चपला लिए अंक में धावित यह कैसी गाथा?

    बस लिपट गयी कुछ कह न सकी बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    21.

    पूछा तुमने अति पास बैठ ”अब भी न जान पाया आली

    क्यों तव प्रसून-वपु छवि सँवार थकता न कभीं भी वनमाली

    किस महाकाव्य की सरस पंक्ति हो किस स्वर की मूर्छना कला

    किस कविता की आनंद-उर्मि किस दृग की सलिल विन्दु विमला

    क्यों थम चीर तेरा समीर गाता विहाग दे दे ताली

    परिरंभ विचुम्बित अधरामृत की क्यों न रिक्त होती प्याली?”

    बोली न, विमुग्ध रही सुनती बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    22.

    सुधि करो कुञ्ज से उमड़-घुमड़ देखती स्निग्ध श्यामल जलधर

    पार्श्वस्थ स्वामी चुम्बिता अवनि पर बिखराती उरोज अम्बर

    प्राणेश पाणिश्रृत ईषत चुम्बित छुई-मुई सी कभीं-कभीं

    जब प्रिया-प्रयाण-क्षण में कहती “प्राणेश! शेष है निशा अभीं”

    अगणित वर्जन पर भी जब कुंतल लहरा देता मलय पवन

    द्रुत चरण क्षेप से कर उठते तत्-थेई-थेई-थेई नूपुर नर्तन

    उस स्मृति में हे प्रिय ! बही विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली॥

    23.

    सुधि करो प्राण ! गोविन्द-गीत’पंकिल’ स्वर करती थी गायन

    पूछती “प्राण! फ़िर कब लौटेंगे ये आषाढी पावस-घन?

    क्यों जलद-हंस-कोकिल-शुक बनते प्रेमपुरी के पटु धावन?

    क्यों तेरी अप्रतिम छवि निहार उमड़ता विलोचन में सावन?”

    था कहा “निलय से झाँक रहे प्रियतमे! विहंगम से पूछो

    चुम्बन जड़ देता क्यों प्रिय निज आनन चन्द्रोपम से पूछो”

    अब क्या न बतकही-योग्य रही बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    24.

    सुधि करो प्राण! था कहा कभीं “चिर अमर वल्लभे वे मधुक्षण

    रोमांच कंटकित मृदु बाँहों के शत-शत ममतामय बंधन”

    प्रिय-पाणि-संस्थिता कल-कल निरता तटिनी-तीर नीर-सीकर

    निश्चल निहारते दीपशिखा सी अस्ताचलगामी दिनकर

    मम भरी नर्म-कांपती हथेली थाम अधर पर धरे अधर

    लज्जानत विनत वदन दशनों से दाब तर्जनी गयी सिहर

    उन्मुक्त कुंतला वही विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    25.

    कर्णावलम्बि कम्पित कुंडल स्वेदाम्बु-सिक्त मनसिज-मथिता

    लिपटती लता-सी सीत्कृत वलयित स्कंधारोहण अभिलषिता

    तुम कोटि-काम-चेष्टा-चंचल द्रुत कुञ्ज-तिमिर में गए समा

    बाँहों में केसरिया दुकूल का शेष रह गया कोर थमा

    श्लथ-कुंतल-कुसुम-सुरभि-मूर्छित मन के हो गए विमुग्ध हिरन

    क्या याद न उडुगन-खचित निशा के लिए दिए अगणित चुम्बन?

    आ जा कृपणा के धन ! विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकालने पर आओगे जीवनवन के वनमाली

    26.

    अगणित मधु प्रणय-केलि-क्षणिकाएं मानस पट पर लहरातीं

    सुधि आती प्रिय क्या रही दशा जब तुमने भेजा था पाती

    कम्पित अँगुली दृग पट बोझिल पुलकित वपु दक्षिण नयन-स्फुरण

    उच्छ्वास उष्ण दोलित दुकूल अति अरुणिम अधर जघन कम्पन

    उर्जस्वित अंगड़ाईयाँ अमित ज्यों फेनिल सरिता बरसाती

    निस्पंद कीर पिंजर-पालित निष्कंप दीप लौ मुस्काती

    वह पाती छाती दबा विकल बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    27.

    तेरे लालित विहंग मुझको दुलरा करते पवानारोहण

    उमड़ता रभस रस-मिलन-घात का दर्दीला निशि-सम्मोहन

    प्रति उषा-निशा में कुछ कपोल पर छलकी अश्रु-सलिल गगरी

    अभिसार-शून्य प्राणेश्वर-विरहित अंत विहीना विभावरी

    गलबहियों के आकुल आमंत्रण में नागिन सी डंस जाती

    कुहरिल प्रदोष की विजन तारिका झिलमिल मिलन-गीत गाती

    निर्मोही! अब भी आ विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    28.

    परिमल-सम्पुट पिक-स्वर-गुंजित उन्मन मीठे तीसरे पहर

    जाने किस अनुकम्पा में प्रिय! झुक गए ललक मम चरणों पर

    नटखटपन में जहर गयी प्राण!कुंतल में गूंथी सुमन-लड़ी

    तेरी ग्रीवा पर रख दुकूल थी निकट सिमटती मौन खड़ी

    चौमासे की उफनती सरित सी नील साटिका फहराती

    झीनाम्बर से झलकती गुराई लोचन-भाषा सिखलाती

    डूबी प्रिय लीला सिन्धु बीच बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    29.

    मम उरज प्रान्त पर शांत बाल सा रख कपोल थे किए शयन

    सहलाती मसृण पाणि कुंतल अर्धोन्मीलित जलजाभ नयन

    कहती थी “प्राण! काल कवलित हो जे न प्रणय मिलन घातें

    निस्पंद शून्य में खो न जाँय ये रस-रभस-कातर रातें

    वर्जन की वे अंगुलियाँ आज भी मेरे अधर दबा जातीं

    वह छवि न भूलती धरे चिबुक नभ-ध्रुव-अरुंधती दिखलाती

    लीला सहचर ! सुधि लो विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली

    30.

    कैसे कहकर थे फूट पड़े छोडो न अकेला मुझे प्रिये

    इस प्रेम भिक्षु को ठुकरा कर मत दूर करो प्रस्थान प्रिये

    नव–नव भंगिनी प्रणय–मुद्राओं से न करो सूनी रजनी

    थिरकते गीत की विविध राग–रागिनी रचोगी कब सजनी

    दर्पण में बिंबित विविध रमन–मुद्राएँ घटित करो रानी

    पद–पूर्ति समस्यायें बूझेगा कौन पहेली की वाणी?

    आ जा लीला–सर्जक ! विकला बावरिया बरसाने वाली

    क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली